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कि कष्ट जन्य दुःखों से घिरा व्यक्ति । इस प्रकार मधुरायण सांसारिक सुखों की आकांक्षा में ही दुःखों का मूल देखते हैं।
पुनः 'संत' शब्द यहाँ 'शान्त' के अर्थ में न होकर सत्ता के अर्थ में होगा। 'संतं दुक्खी' का अर्थ यहाँ होगा दुःखी होकर । पुनः यहाँ दुःखी होने का अर्थ कामना या आकांक्षा से युक्त होना ही है। अतः 'संतं दुक्खी दुक्खं उदीरेइ' से अभिप्राय है कि दुःखी होकर ही दुःख को निमन्त्रण दिया जाता है। अर्थात् साकांक्ष व्यक्ति ही दुःख का प्रेरक होता है । इसी प्रकार 'नो असंतं दुक्खी दुक्खं उदेरइ' दुःख से दुःखित न होकर दुःख को निमन्त्रण नहीं दिया जाता अर्थात् जो व्यक्ति निराकांक्ष है वह दुःख का प्रेरक नहीं होता है अर्थात् दुःख (कष्टों) से दुःखी व्यक्ति ही दुःख को प्राप्त होता है।
इसके पश्चात् इस अध्याय में मुख्य रूप से पाप को अनिर्वाण और संसार भ्रमण का कारण बताते हुए यह कहा गया है कि जिस प्रकार बीज के होने पर अंकुरण स्वाभाविक है उसी प्रकार पापों के होने पर भी दुःख का होना स्वाभाविक है । अन्त में यह कहा गया है कि आत्मा ही अपने कर्मों का कर्ता है और अपने कर्मों का भोक्ता है। इसलिए साधक को आत्मार्थ के लिए पाप मार्ग का त्याग कर देना चाहिए। जिस प्रकार सपेरा साँप के विष-दोष को समाप्त करता है उसी प्रकार साधक को दुःखों के मूल को समाप्त करना चाहिए । मधुरायण की दृष्टि में 'दुःख का मूल सुख (सांसारिक सुखों) की आकांक्षा से रहित होना है।
तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि प्रस्तुत अध्याय की विषय वस्तु की ऋषिभाषित के अन्य अध्यायों की विषय वस्तु से पर्याप्त समानता है। इस 15वें अध्याय की विषय वस्तु 9 वें अध्याय के समान है। इस तथ्य को ग्रन्थकार ने भी 'णवमज्झयणगमरण्णं वणेयव्वं' कहकर स्वीकार किया है।
बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में अन्यत्र इनका उल्लेख अनुपलब्ध होने से इनके सम्बन्ध में तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है।
16. शोर्यायण (सौरयायण)
ऋषिभाषित का 16वां अध्ययन 157 शौर्यायण (सोरयायण) नामक अर्हत् ऋषि से सम्बन्धित है। ऋषिभाषित के अतिरिक्त सोरिय का उल्लेख स्थानांग 158 और विपाकसूत्र 159 में भी मिलता है। विपाकसूत्र में इनका सोरियदत्त नाम से उल्लेख हुआ है । स्थानांग की सूचना के अनुसार कर्म विपाक दशा के सातवें 66 इसिभासियाई सुत्ताई