________________
ज्ञाता एवं ऋषिभाषित के अतिरिक्त स्थानांग में भी तेतलिपुत्र का उल्लेख है122। उसमें अनुत्तरोपपातिक की आठवें अध्ययन (दशा) का नाम 'तेतली' कहा गया है, किन्तु वर्तमान अनुत्तरोपपातिक दशा में यह अध्ययन (दशा) अनुपलब्ध है। चूँकि ज्ञाता में तेतलिपुत्र का वृत्त आ गया था अतः उसे यहाँ से हटा दिया गया होगा। साक्ष्य के अभाव में आज यह कह पाना कठिन है कि इस दशा में पूरी विषय वस्तु क्या थी?
जैन साहित्य के अतिरिक्त बौद्ध एवं वैदिक साहित्य में इनके सम्बन्ध में कोई भी उल्लेख उपलब्ध नहीं है। इससे ऐसा लगता है कि ये मूलतः निर्ग्रन्थ धारा से सम्बन्धित रहे होंगे।
11. मंखलिपुत्त ऋषिभाषित123 ग्यारहवाँ अध्याय मंखलिप्त्त से सम्बन्धित है। यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उपस्थित होता है कि ये मंखलिपुत्त कौन थे। जैन और बौद्ध परम्पराओं में मंखलिगोसाल या मक्खलिगोसाल का उल्लेख उपलब्ध होता है। भगवतीसूत्र का 15वां शतक124 मंखलिगोसाल के जीवन-वृत्त और उनकी दार्शनिक मान्यताओं का विवरण प्रस्तुत करता है। जैन परम्परा में भगवतीसूत्र के अतिरिक्त मंखलि गोसाल का विवरण उपासकदशा,125 आवश्यकनियुक्ति,126 विशेषावश्यकभाष्य,127 आवश्यकचूर्णि,128 आदि अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध है। उपलब्ध वृत्तों के अनुसार इन्हें मंखलि नामक मंख का पुत्र होने के कारण मंखलि पुत्र और गोशाला में जन्म लेने के कारण गोसाल कहा जाता था। जैन परम्परा के अनुसार ये महावीर से दीक्षित होने के पश्चात् उनके दूसरे चतुर्मास में उनसे मिले और लगभग छः वर्ष तक उन्हीं के साथ रहे। बाद में नियतिवाद के प्रश्न को लेकर दोनों में मतभेद हो गया। भगवतीसूत्र की सूचना के अनुसार महावीर की दीक्षा के 24 वर्ष पश्चात् मंखलिपुत्र गोसाल ने अपने आप को जिन या तीर्थंकर घोषित कर दिया। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा भगवतीसूत्र में उपलब्ध होती है। किन्तु, हमारी दृष्टि में वह एकपक्षीय तथा अतिरंजित विवरण है। इन कथा-स्रोतों से हम केवल इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि मंखलिपुत्त गोसाल ने महावीर से स्वतन्त्र अपनी एक परम्परा स्थापित कर ली थी और उनका समाज पर एक व्यापक प्रभाव था। उनका यह सम्प्रदाय आगे चलकर आजीवक के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
बौद्ध त्रिपिटक साहित्य129 में भी मक्खलि गोसाल को बुद्ध के समकालीन छः तीर्थंकरों में एक माना गया है। इसके अतिरिक्त थेरगाथा130 में भी गोसाल 58 इसिभासियाई सुत्ताई