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अम्बरतलं सव्वतमोरासिंव्व पिण्डिते, पच्चक्खमिव सयं कतत्ते भीम खं करेन्ते घरणि। प्पवेसिणो सरणितन्ति, पहयवहजाला सहस्ससंकलं समन्ततो पलित्तं । धगधगेति... आउसो तेतलिपुत्ता कत्तो वयामो?
त तेणं से तेतलिपुत्ते..... पोट्टिलं मूसियारधूयं एवं वयासि पोट्टिले। एहि ता आयाणाहिः भीयस्स खलु भो पव्वज्जा, अभिउतस्स सवहणकिच्चं मातिस्स रहस्सकिच्चं, उक्कंठियस्स देसगमणकिच्चं, छुहियस्स भोयणंकिच्चं पिपासियस्स पाणकिच्चं परं अभिउंजिउकामस्स सत्थकिच्चं, खन्तस्स दन्तस्स गुत्तस्स जितिन्दियस्स एत्तो ते एक्कमवि ण
त एणं से तेयलिपुत्ते पोट्टिलं देवं एवं वयासि-भीयस्स खलु पव्वज्जा सरणं उक्कंठियस्स देसगमणं, छुहिस्सं अन्नं, तिसियस्स पाणं, आउरस्स भेसज्जं माइयस्स रहस्सं, अभिजुदस्स पच्चयकरणं....परं अभिओ जितुकामस्ससहायकिच्चं खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स एतो एगमवि ण भवइ।
भवइ।
इन दोनों पाठों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि (1) ज्ञाताधर्म-कथा में ऋषिभाषित की अपेक्षा तेतलिपुत्र का विवरण अधिक विकसित है और उसमें अलौकिक तत्त्व अधिक जुड़ गये हैं। (2) दूसरे, ज्ञाता की अपेक्षा ऋषिभाषित के पाठों की भाषा 'त' प्रधान और प्राचीन मागधी के निकट है और इसलिए प्राचीन भी है, जबकि ज्ञाता की भाषा 'य' श्रुति प्रधान, महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव से युक्त और अपेक्षाकृत परवर्ती है।
जहाँ तक प्रस्तुत अध्याय की मूलभूत शिक्षा या उपदेश का प्रश्न है वह अस्पष्ट ही है। वस्तुतः प्रस्तुत अध्याय में उपदेश भाग अति अल्प ही है। वस्तुतः तेतलिपुत्र इसमें अपने जीवन के अनुभव प्रस्तुत करते हैं, वे कहते हैं—मैं परिजनों, मित्रों-पुत्रों आदि से युक्त होकर भी असहाय अनुभव करता हूँ, धन-सम्पत्ति से युक्त होकर भी दीन हूँ, निराश होकर आत्म-हत्या के प्रयत्न किये किन्तु उसमें भी असफल ही रहा। अतः मेरे जीवन में अविश्वास भर गया है। जहाँ दसरे श्रमण-ब्राह्मण श्रद्धा की बात कहते हैं, मैं अकेला अश्रद्धा (अविश्वास) का प्रतिपादन करता हूँ। यह अविश्वास या अनास्था ही उनके वैराग्य का कारण है।
ऋषिभाषित : एक अध्ययन 57