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________________ और मनोभावों की शुद्धि था। सम्भवतः ये महावीर और बुद्ध के समकालीन अथवा उनसे कुछ पूर्ववर्ती रहे होंगे। जहाँ तक वैदिक परम्परा का प्रश्न है हमें उसमें कुम्मा के सम्बन्ध में कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं हुआ है। 8. केतलीपुत्त ऋषिभाषित के आठवें अध्याय में केतलीपुत्र के उपदेशों का संकलन है। केतलीपुत्त के सम्बन्ध में हमें ऋषिभाषित 107 के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं से कोई भी सूचना प्राप्त नहीं होती है। अन्य किसी जैन आगम ग्रन्थ में अथवा परवर्ती कथा ग्रन्थों में भी इनका उल्लेख नहीं प्राप्त होता । बौद्ध और वैदिक परम्पराएँ भी इनके सम्बन्ध में मौन हैं। अतः ये कौन थे ? यह कह पाना कठिन है। समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने इनका समन्वय केतलीपुत्र से किया है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह उचित नहीं है। केतलीपुत्र के संक्षिप्त उपदेश के अतिरिक्त ऋषिभाषित में हमें उनके सम्बन्ध में अन्य कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। ऋषिभाषित का दसवाँ अध्याय तेतलीपुत्त से सम्बन्धित है। तेतलीपुत्त का उल्लेख ज्ञाता, अनुत्तरोपपातिक, आवश्यकचूर्णि, इसिमण्डल तथा उसकी वृत्ति में मिलता है। यह भी सम्भव है कि उच्चारण भेद के कारण एक ही व्यक्ति के दोनों नाम प्रचलित रहे हों और इसी आधार पर इन्हें दो स्वतन्त्र व्यक्ति मान लिया गया हो । यद्यपि निश्चित प्रमाणों के अभाव के कारण इस सम्बन्ध में अधिक कुछ कह पाना कठिन है। ऋषिभाषित में केतलीपुत्र का उपदेश यह है कि व्यक्ति आरं (संसार) में दो गुणों से और पारं (निर्वाण) में एक गुण से युक्त होता है, अतः व्यक्ति को रेशम के कीड़े की भाँति अपने बन्धन को तोड़कर मुक्ति प्राप्त कर लेना चाहिए । प्रस्तुत अध्याय में संसार के लिए 'आरं' और मुक्ति के लिए 'पारं' शब्द का जो प्रयोग हुआ है वह हमें आचारांग और सूत्रकृतांग में भी उपलब्ध होता है। इससे इस उपदेश की प्राचीनता सिद्ध होती है। आरं (संसार) में दो गुण और पारं (मुक्ति) में एक गुण रहता है। इसकी व्याख्या अनेक दृष्टि से की जा सकती है। यथा-संसार में ज्ञान और कर्म ( चारित्र) दो गुण होते हैं जबकि मुक्ति में ज्ञान नामक एक ही गुण होता है अथवा संसार में राग और द्वेष दो गुण होते हैं जबकि मुक्ति में वीतरागता का एक ही गुण होता है। उनके इस उपदेश से ऐसा लगता है कि ये उस युग में कोई रहस्यवादी साधक रहे होंगे। विशेष जानकारी के अभाव में इनकी ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में कुछ भी कहना कठिन है। ऋषिभाषित : एक अध्ययन 53
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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