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________________ 7. कुम्मापुत्त ऋषिभाषित के सातवें अध्याय में कुम्मापुत्त (कूर्मापुत्र) ऋषि के उपदेशों का संकलन है। जैन परम्परा में ऋषिभाषित' के साथ-साथ कुम्मापुत्त का उल्लेख विशेषावश्यकभाष्य,100 आवश्यकचूर्णि101, औपपातिक की टीका102 तथा हरिभद्र की रचना विशेषणवती103 में भी उपलब्ध होता है। इसिमंडल104 (ऋषिमण्डल) में भी इनका उल्लेख है। किन्तु, इन ग्रन्थों में इनका विस्तृत जीवन-वृत्त नहीं मिलता है। इनका विस्तृत जीवन-वृत्त तो ऋषिमण्डल की वृत्ति तथा कुम्मापुत्तचरियम् में मिलता है, किन्तु ये दोनों रचनाएँ बारहवीं शताब्दी के पश्चात् की ही हैं। प्राचीन जैन साहित्य में इन्हें बौने या वामन व्यक्ति के रूप में चित्रित किया गया है और इनके शरीर की ऊँचाई मात्र दो हाथ (लगभग 3 फीट) बतायी गयी है। इन्होंने गृहस्थावस्था में ही कैवल्य प्राप्त कर लिया था। इन उल्लेखों से इतना निश्चित होता है कि ये प्राचीन श्रमण परम्परा के कोई ऋषि रहे हैं। __ऋषिभाषित में वे निराकांक्ष या आसक्तिहीन होने का उपदेश देते हैं। उनके उपदेश में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे आकांक्षा को ही दुःख का कारण मानते हैं और कहते हैं कि यदि एक आलसी व्यक्ति भी निराकांक्ष होकर सुखी हो जाता है तो फिर एक प्रबुद्ध -प्रयत्नशील साधक के लिए निराकांक्ष होकर सुखी होने में कोई आपत्ति ही नहीं हो सकती। वस्तुतः उनका यह उपदेश गीता के अनासक्त योग के उपदेश के ही समान है। जैन परम्परा के अतिरिक्त बौद्ध परम्परा में भी हमें कुम्मापुत्त थेर का उल्लेख उपलब्ध होता है। थेर गाथा105 और अपदान106 की अट्ठकथा में कुम्मापुत्त का कथानक विस्तार से उपलब्ध होता है। इन्होंने अपने पूर्वजन्म में विप्पसि बुद्ध को पैरों पर मर्दन करने के लिए तेल प्रदान किया था। उसी पुण्य के फलस्वरूप वे अवन्ति राष्ट्र के वेलुत्कण्टक नगर में किसी गृहपति के कुल में उत्पन्न हुए। उनकी माता का नाम कुम्मा होने से उन्हें कूर्मापुत्र कहा जाता है। ये सारिपुत्त का उपदेश सुनकर प्रव्रजित हुए थे और इन्हें कर्मस्थान के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए विपश्यना के द्वारा अर्हत् पद प्राप्त हुआ। थेरगाथा में कुम्मापुत्त सायथेर का भी उल्लेख मिलता है। ये वस्तुतः कुम्मापुत्त के सहायक या निकटस्थ व्यक्ति थे, अतः कुम्मापुत्त से भिन्न हैं। जैन और बौद्ध, दोनों परम्पराओं में इस सम्बन्ध में मतैक्य है कि अपनी माता के नाम पर ही इनका नाम कुम्मापुत्त प्रसिद्ध हुआ था। इसके साथ-साथ यह भी सत्य है कि इनके उपदेशों का सारतत्त्व निष्कामता 52 इसिभासियाई सुत्ताई
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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