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________________ ऋषिमण्डल वृत्ति में यह कथा उपलब्ध है। आवश्यकचूर्णि के निर्देशानुसार यह कथा वसुदेवहिंडी में भी उपलब्ध है। 7 आवश्यकचूर्णि में एवं अन्यत्र उपलब्ध कथा के अनुसार ये पोतनपुर निवासी राजा सोमचन्द्र के पुत्र तथा प्रसन्नचन्द्र के भाई बताये गये हैं । प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का भाई होने के कारण इन्हें महावीर का समसामयिक माना जा सकता है। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की कथा जैन परम्परा में प्रसिद्ध ही है। आवश्यकचूर्णि में इनकी कथा भी उपलब्ध होती है। इन कथा - स्रोतों से इतनी सूचना अवश्य मिलती है कि इनके पिता दिशाप्रोषक तापसी साधना करते थे। दिशाप्रोषक तापसों का उल्लेख औपपातिक आदि अन्य जैन ग्रन्थों में भी मिलता है। अपने पिता के सान्निध्य में जंगल में ही पलने के कारण इन्हें स्त्री-पुरुष, अश्व और मृग का भेद भी ज्ञात नहीं था। इन्हें अपने पिता के साधना - उपकरणों का प्रमार्ज़न करते हुए ज्ञान प्राप्त हुआ । ऋषिभाषित में उपलब्ध वल्कलचीरी के उपदेशों से लगता है कि इनके मन में स्त्रियों के प्रति विशेष रूप से वैराग्य भाव था। ब्रह्मचर्य की शिक्षा इनके उपदेश मूल सारतत्त्व है। ये कहते हैं कि, हे पुरुष ! स्त्रिवृन्द के प्रति अत्यन्त आसक्त होकर अपना ही शत्रु मत बन । तुमसे जितना सम्भव हो (कामवासना से) युद्ध करें। क्योंकि, इनसे तू जितना दूर रहेगा उतना ही उपशान्त बनेगा । इस समग्र विवरण से ऐसा लगता है कि वल्कलचीरी ब्रह्मचर्य की साधना पर विशेष रूप से बल देने वाले ऋषि रहे होंगे। जैन परम्परा में उनके लिए प्रयुक्त भगवन् शब्द भी उनकी महत्ता को स्पष्ट करता है । वल्कलचीरी नाम इस तथ्य को भी प्रकट करता है कि वे वल्कल को वस्त्र के रूप में धारण करते होंगे। 98 जैन परम्परा के अतिरिक्त वल्कलचीरी का उल्लेख हमें बौद्ध परम्परा में भी मिलता है। यहाँ उन्हें वल्कली थेर कहा गया है तथा उन्हें तीनों वेदों का ज्ञाता और श्रावस्ती निवासी एक ब्राह्मण बताया गया है। पालि साहित्य में उपलब्ध उल्लेखों के अनुसार वल्कली बौद्ध संघ में दीक्षित होते हैं, फिर उन्हें संघ से निष्कासित कर दिया जाता है । गृध्रकूट पर्वत पर उनके साधना करने के उल्लेख मिलते हैं। पालि-साहित्य में बुद्ध उनकी श्रद्धा की प्रशंसा करते हैं। वैदिक परम्परा में वल्कलचीरी का उल्लेख हमें नहीं मिलता है। चाहे बौद्ध परम्परा ने इन्हें अपने से जोड़ने का प्रयत्न किया हो, किन्तु मेरी दृष्टि में ये तापस परम्परा के ऋषि रहे होंगे। ऋषिभाषित : एक अध्ययन 51
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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