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भी यह सम्भावना हो सकती है कि ये पूर्व में औपनिषदिक ऋषियों की परम्परा से जुड़े हों किन्तु बाद में बुद्ध से प्रभावित होकर बौद्ध परम्परा से जुड़ गये हों। क्योंकि, बौद्ध परम्परा में इनका अरण्यवासी होकर रहना किसी भिन्न तथ्य का ही सूचक है। पुनः बौद्ध संघ में सर्वप्रथम इनकी शिष्य परम्परा का विरोध में उठ खड़ा होना भी यही सूचित करता है कि इनकी परम्परा के संस्कार कुछ भिन्न ही थे। वैसे औपनिषदिक ऋषि परम्परा में वात्सीपुत्र के नामोल्लेख के अतिरिक्त अन्य कुछ सूचना नहीं मिलना भी यही सूचित करता है कि ये बाद में किसी अन्य धारा से जुड़ गये होंगे।
3. असित देवल असित देवल का उल्लेख हमें भारतीय चिन्तन की वैदिक, जैन एवं बौद्ध तीनों धाराओं में उपलब्ध होता है। देवल का धर्मसूत्र भी प्राचीनकाल में प्रचलित था, जिसके अनेक उद्धरण हमें परवर्ती काल के ग्रन्थों में आज भी उपलब्ध होते हैं। इस आधार पर इतना तो सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है कि असित देवल मात्र पौराणिक पुरुष न होकर एक ऐतिहासिक व्यक्ति रहे होंगे।
जैन परम्परा में असित देवल का उल्लेख ऋषिभाषित और सूत्रकृतांग65 में उपलब्ध होता है। ऋषिभाषित में उन्हें 'अर्हत् ऋषि' कहा गया है। उनका जो उपदेश ऋषिभाषित में संकलित है वह हमारे सामने निम्न तथ्यों को प्रस्तुत करता है। सर्वप्रथम व्यक्ति को चतुर्गति रूप संसार से निवृत्त होकर अतुल, अबाध, शाश्वत स्थान अर्थात् मुक्ति की प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए। यह मुक्ति कैसे प्राप्त होती है? इसकी चर्चा करते हुए बताया गया है कि सर्वकामनाओं, सर्वासक्तियों, सर्वराग और सर्व क्रिया-कलापों से तथा क्रोध, मान, माया और लोभ से विरत होकर तथा सब प्रकार से संवृत्त, उपरत, संयमी और प्रतिबुद्ध होकर संसार के सभी लेपों से अर्थात् बन्धन-कारक कर्मों से बचा जा सकता है तथा मुक्ति को प्राप्त किया जा सकता है। इसके बाद ग्यारह गाथाओं में यह बताया गया है कि किन-किन कर्मों को करने से प्राणी पापकर्मों में लिप्त होता है। अन्त में यह कहा गया है कि सामान्य अग्नि को तो जल के द्वारा बुझाया जा सकता है किन्तु मोह-अग्नि दुर्निवार है, जो इस तथ्य को समझ लेता है वही जन्म-मरण को समाप्त कर सिद्धि को प्राप्त करता है। उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि असित देवल निवृत्ति-मार्ग के उपदेशक थे। उनके नाम के साथ लगे हुए अर्हत् ऋषि विशेषण से भी यह बात पुष्ट होती है। सूत्रकृतांग
44 इसिभासियाई सुत्ताई