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उपदेशों की समरूपता हमें उत्तराध्ययन के तीसवें अध्याय में भी मिलती है। इस अध्याय में प्रस्तुत विचारों की प्रामाणिकता का आधार यह है कि इसमें कर्मसन्तति की चर्चा है जो बौद्ध परम्परा के सन्ततिवाद के प्रभाव को सूचित करती है । इस अध्याय को देखने से यह भी स्पष्ट होता है कि वज्जीपुत्त आचरण की अपेक्षा ज्ञान पर अधिक बल देते हैं। बौद्ध परम्परा में वज्जिपुत्तीय (वात्सीपुत्रीय) सम्प्रदाय भी मुख्य रूप से आचरण के रूढ़ नियमों के विरुद्ध ज्ञानमार्ग और चित्तशुद्धि पर बल देता है।
मेरी दृष्टि में यह निर्विवाद सत्य है कि ऋषिभाषित के वज्जियपुत्त अन्य कोई नहीं बौद्ध परम्परा के वज्जीपुत्त थेर ही हैं।
वैदिक परम्परा में वात्सीपुत्र का उल्लेख है जो कि प्राकृत वज्जीपुत्त का ही संस्कृत रूप हो सकता है, यहाँ कठिनाई एक ही है वात्सी का प्राकृत रूप वज्जी मानने से एक समस्या उत्पन्न होती है। वृहदारण्यक उपनिषद् की अन्तिम वंश - सूची में वात्सीपुत्र का नाम प्राप्त होता है। काण्व शाखा के अनुसार ये पाराशरीपुत्र के शिष्य और माध्यंदिन शाखा के अनुसार ये माण्डवी पुत्र के शिष्य हैं लेकिन ये सभी भी मात्र कल्पनाएँ ही है ।
वैदिक परम्परा में इनके नामोल्लेख के अतिरिक्त अन्य विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु इस आधार पर इतना अवश्य ज्ञात होता है कि ये औपनिषदिक काल के कोई ऋषि हैं। इस सन्दर्भ में स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या ऋषिभाषित के वज्जीपुत्त, बौद्ध परम्परा के वज्जीपुत्त और बृहदारण्यक उपनिषद् के वात्सीपुत्र ये तीनों एक ही व्यक्ति हैं अथवा भिन्न व्यक्ति हैं ? चूँकि वैदिक परम्परा में वात्सीपुत्र का दर्शन या चिन्तन अनुपलब्ध है, अतः इनकी ऋषिभाषित के वज्जियपुत्त के साथ एकरूपता स्थापित करना कठिन है। जबकि चिन्तन - साम्यता की दृष्टि से विचार करने पर बौद्ध परम्परा के वज्जीपुत्त की ऋषिभाषित के वज्जीपुत्त से अधिक निकटता सिद्ध होती है । पुनः बौद्ध परम्परा में वज्जिपुत्तियों का सम्प्रदाय होना भी यही सिद्ध करता है कि ये मूलतः बौद्ध परम्परा के ही रहे होंगे। किन्तु, अभी यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहता है कि बृहदारण्यक उपनिषद् के वात्सीपुत्र कौन थे ? चूँकि उपनिषदों में अन्य किसी बौद्ध परम्परा के भिक्षु का नामोल्लेख नहीं है अतः बृहदारण्यक के वात्सीपुत्र और बौद्ध परम्परा के वज्जीपुत्त एक ही व्यक्ति रहे होंगे यह कहना कठिन ही है। यदि ये बौद्ध परम्परा में उल्लेखित सामान्य थेर होते तो यह सम्भावना हो सकती थी कि बौद्धों ने नारद आदि की भाँति इन्हें भी अपनी परम्परा में स्थान दे दिया होगा, किन्तु बौद्ध संघ में इनकी स्थिति सम्प्रदाय के नेता के रूप में है। फिर
ऋषिभाषित : एक अध्ययन 43