SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के माने जा सकते हैं। मंखलिपुत्र स्पष्ट रूप से आजीवक परम्परा के हैं। शेष नामों के सम्बन्ध में हमें अनेक पहलुओं से विचार करना होगा। यद्यपि पुष्पशालपुत्र, वल्कलचीरी, कुम्मापुत्त, केतलिपुत्र, भयालि, मधुरायण, सौर्यायण, आर्यायण, गर्दभालि, गाथापतिपुत्र तरुण, वारत्रय, आर्द्रक, वायु, संजय, इन्द्रनाग, सोम, यम, वरुण, वैश्रमण आदि की ऐतिहासिकता और परम्परा का निश्चय करना कठिन है, किन्तु यदि हम तीनों अर्थात् जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा में प्राप्त उनके उल्लेख के आधार पर उनकी ऐतिहासिकता का विचार करें तो सम्भवतः किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है। प्रो. सी. एस. उपासक ने 'इसिभासियाई और पॉलि बुद्धिस्ट टैक्स्ट' नामक अपने एक लेख में इस प्रकार का विचार व्यक्त किया है, किन्तु उन्होंने अपने को बौद्ध त्रिपिटक साहित्य तक ही सीमित रखा है। प्रस्तुत आलेख में शुब्रिग और उपासक के इन प्रयत्नों को तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक विवरण के आधार पर प्रामाणिकता से आगे बढ़ाने का प्रयास किया गया है। अतः ऋषिभाषित के एकएक ऋषि को लेकर उनके सम्बन्ध में अधिक गम्भीरता से विचार करना होगा। 1. देव नारद ऋषिभाषित का प्रथम अध्याय अर्हत् ऋषि देव नारद से सम्बन्धित है। नारद के सम्बन्ध में उल्लेख हमें जैन, बौद्ध और हिन्द तीनों ही परम्पराओं में मिलते हैं। जैन परम्परा में नारद का उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त समवायांग41, ज्ञाताधर्मकथा42, औपपातिक43, ऋषिमण्डल44, और आवश्यकचूर्णि45 में भी उपलब्ध है। समवायांग में यह कहा गया है कि नारद का जीव आगामी उत्सर्पिणी काल में विमल नामक इक्कीसवाँ तीर्थंकर होगा। इस प्रकार ऋषिभाषित और समवायांग दोनों में नारद को सम्मानित रूप में प्रस्तुत किया गया है। समवायांग में प्रकारान्तर से एवं ऋषिभाषित की टीका में उन्हें स्पष्ट रूप से प्रत्येकबुद्ध कहा गया है। किन्तु, हमें स्मरण रखना होगा कि अर्हत् ऋषि, प्रत्येकबुद्ध और भावी तीर्थंकर की अवधारणाओं में अन्तर है। जैन परम्परा के अनुसार अर्हत् एवं प्रत्येकबुद्ध उसी भव में मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं, जबकि भावी तीर्थंकर आगामी तीसरे भव में मुक्ति प्राप्त करता है। अतः जैन परम्परा के अनुसार अर्हत् एवं प्रत्येकबुद्ध के भावी तीर्थंकर होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येकबुद्ध और भावी तीर्थंकर की अवधारणाएँ ऋषिभाषित की रचना के पश्चात् ही विकसित हुई हैं। यद्यपि दोनों ही अवधारणाएँ एक दृष्टि से व्यक्ति ऋषिभाषित : एक अध्ययन 37
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy