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को सम्मानित रूप से देखने का प्रयत्न तो है, फिर भी जहाँ प्रत्येकबद्ध को जैन परम्परा से असम्पृक्त रखा गया वहाँ भावी तीर्थंकर को जैन परम्परा में स्थान दिया गया है। असम्पृक्त रखने की इसी प्रक्रिया में ऋषिभाषित के ऋषियों को प्रत्येकबुद्ध कह दिया गया, किन्तु उनमें से कुछ को परम्परा से सम्बन्धित करने के लिए भावी तीर्थंकर के रूप में भी मान्य कर लिया गया।
__ ऋषिभाषित के देव नारद को ज्ञाताधर्मकथा और इसिमण्डल (ऋषिमण्डल) में कल्छुल नारद कहा गया है, फिर भी दोनों एक ही व्यक्ति हैं। क्योंकि, ऋषिभाषित की संग्रहणी गाथा में इन्हें अरिष्टनेमि के काल में होने वाला प्रत्येकबुद्ध कहा गया है। ज्ञाताधर्मकथा के नारद भी कृष्ण और अरिष्टनेमि के समकालिक ही हैं। ज्ञाताधर्मकथा में इन्हें एक ओर भद्र और विविध विद्याओं का ज्ञाता कहा गया है, किन्तु दूसरी ओर कलुष हृदय एवं कलहप्रिय भी कहा है। औपपातिक में ब्राह्मण परिव्राजकों के रूप में नारद का उल्लेख हुआ है।
औपपातिक और ज्ञाताधर्मकथा, दोनों ही उन्हें चारों वेद और अनेक विद्याओं के ज्ञाता एवं शौचधर्म के प्रवर्तक मानते हैं। ऋषिभाषित में भी इनके उपदेश में शौचधर्म की प्रधानता है, फिर भी यहाँ ये आन्तरिक पवित्रता का उपदेश देते हैं, बाह्य पवित्रता का नहीं। आवश्यकचूर्णि में भी नारद का जो उल्लेख उपलब्ध है उसमें उन्हें शौरीपुर निवासी ब्राह्मण यज्ञदत्त और सोमयशा का पुत्र कहा गया है। ऋषिमण्डल में भी नारद का उल्लेख है। उसमें उन्हें 'सत्य ही शौच है' नामक प्रथम अध्ययन का प्रवक्ता कहा गया है। इससे ऐसा लगता है कि ऋषिमण्डलकार ने इस तथ्य को ऋषिभाषित से ही लिया है। इस समग्र विवरण से ऐसा लगता है कि ऋषिभाषित, समवायांग, ज्ञाताधर्मकथा, औपपातिक और ऋषिमण्डल में उल्लिखित नारद भिन्न-भिन्न व्यक्ति नहीं है बल्कि एक ही व्यक्ति हैं। इतना निश्चित है कि ऋषिभाषित एवं समवायांग में उन्हें अर्हत् ऋषि और भावी तीर्थंकर के रूप में जो सम्मानपूर्ण स्थिति प्राप्त है वह परवर्ती आगमिक और अन्य जैन साहित्य में उपलब्ध नहीं है। यह तथ्य ऋषिभाषित के साम्प्रदायिक अभिनिवेश से पूर्णतया मुक्त होने का प्रमाण भी है।
जहाँ तक ऋषिभाषित में उल्लिखित नारद के उपदेश का प्रश्न है उसमें जैन परम्परा में स्वीकृत 5 महाव्रतों को ही 4 शौचों में विभाजित कर उन्हें उनका प्रवक्ता कहा गया है। इसमें ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को एक ही वर्ग में दिखाया गया है। साथ ही ऋषिभाषित और अन्य जैन आगमों में उन्हें शौच धर्म का प्रतिपादक भी माना गया है। यद्यपि हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि जहाँ अन्य जैन आगमों में उन्हें बाह्य शौच अर्थात् शरीर-शुद्धि पर बल देने वाला कहते हैं, 38 इसिभासियाई सुत्ताई