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ऋषिभाषित के ऋषियों का काल एवं परम्परा
जैन परम्परा के अनुसार इन 45 ऋषियों में 20 अरिष्टनेमि के काल के, 15 पार्श्व के काल के, शेष 10 महावीर के काल के माने गये हैं। 38 इसिमण्डल भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है। यद्यपि यदि हम इनके काल का यह वर्गीकरण इस आधार पर करें कि प्रथम 20 अरिष्टनेमि के काल के, उसके बाद के 15 पार्श्व के काल के और अन्त में 10 महावीर के काल के हैं तो यह वर्गीकरण उचित नहीं बैठता; क्योंकि फिर 29वें क्रम में स्थित वर्धमान को पार्श्व के काल का मानना होगा । और, 40वें क्रम पर स्थित द्वैपायन को महावीर के काल का मानना होगा। जबकि स्थिति इससे भिन्न ही है । द्वैपायन अरिष्टनेमि के काल के हैं और वर्धमान स्वयं महावीर ही हैं। अतः यह मानना समुचित नहीं होगा कि जिस क्रम से ऋषिभाषित में इन ऋषियों का उल्लेख हुआ है उस क्रम से ही वे अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर के काल में विभाजित होते हैं। कौन ऋषि किस काल का है ? इसके सन्दर्भ में पुनर्विचार की आवश्यकता है। शुब्रिंग ने स्वयं इस सम्बन्ध में स्पष्ट संकेत नहीं किया है। ऋषिभाषित के ऋषियों की पहचान का एक प्रयत्न शुब्रिंग ने अपनी इसिभासियाई की भूमिका में किया है। 39 उनके अनुसार याज्ञवल्क्य, बाहुक (नल), अरुण, महाशालपुत्र या आरुणि और उद्दालक स्पष्ट रूप से औपनिषदिक परम्परा के प्रतीत होते हैं। इसके साथ ही पिंग, ऋषिगिरि और श्रीगिरि इन तीनों को ब्राह्मण परिव्राजक और अम्बड़ को परिव्राजक कहा गया है। इसलिए यह चारों भी ब्राह्मण परम्परा से सम्बन्धित हैं। यौगन्धरायण, जिनका अम्बड़ से सम्वाद हुआ है, वे भी ब्राह्मण परम्परा के ऋषि प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार मधुरायण, आर्यायण, तारायण (नारायण) भी ब्राह्मण परम्परा से सम्बन्धित लगते हैं। अंगिरस और वारिषेण कृष्ण भी ब्राह्मण परम्परा से सम्बन्धित माने जाते हैं। शुब्रिंग महाकाश्यप, सारिपुत्र और वज्जीयपुत्त को बौद्ध परम्परा से सम्बन्धित मानते हैं। उनकी यह मान्यता मेरी दृष्टि से समुचित भी है। यद्यपि शुब्रिंग ने पुष्पशालपुत्र, केतलिपुत्र, विदु, गाथापतिपुत्र तरुण, हरिगिरि, मातंग और वायु को प्रमाण के अभाव में किसी परम्परा से जोड़ने में असमर्थता व्यक्त की है।
पिंग,
यदि हम शुब्रिंग के उपर्युक्त दृष्टिकोण को उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर रखते हैं तो नारद, असित देवल, आंगिरस भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, उद्दालक, तारायण को स्पष्ट रूप से वैदिक या औपनिषदिक परम्परा के ऋषि मान सकते हैं। इसी प्रकार महाकाश्यप, सारिपुत्त और वज्जीपुत्त को बौद्ध परम्परा का मानने में भी हमें कोई आपत्ति नहीं होगी । पार्श्व और वर्धमान स्पष्ट रूप से जैन परम्परा
36 इसिभासियाई सुत्ताई