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13. जैसे उत्कृष्यमाण (अंजलि में भरा हुआ जल) और एक स्थान से दूसरे स्थान पर निःसार्यमाण जल धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। उसी प्रकार बद्ध-स्पृष्ट और नित्त कर्म शनैः-शनैः क्षय हो जाते हैं, किन्तु निदानकृत कर्म अवश्य उदीरित होते हैं, अर्थात् उदय में आते हैं।
13. As the water carried in cupped palm gradually trickles down to its exhaustion in transit so the patent Karmas emerge forth.
अप्पा ठिती सरीराणं, बहुं पावं च दुक्कडं ।
पुव्वं बज्झिज्जते पावं, तेण दुक्खं तवो मयं । । 14 ।।
14. देहधारियों की स्थिति अल्प है और उनके दुष्कृत पापकर्म अत्यधिक हैं। पाप कर्म पहले भी बांधे जाते हैं अतः उनके क्षय के लिये दुष्कर तपमय निर्जरा आवश्यक है।
14. Existence of living beings is short-lived while their accumulation of vile Karmas is immense. That warrants severe austerities on their part to exhaust such Karmas and stop further ingress.
खिज्जंते पावकम्माणि, जुत्तजोगस्स धीमतो । देसकम्मक्खयब्भूता, जायन्ते रिद्धियो बहू ||15||
15. समाधियुक्त (योगी) बुद्धिमान् पापकर्मों का क्षय करता है। आंशिक रूप से कर्मक्षय होने पर अनेक प्रकार की ऋद्धियां प्राप्त होती हैं।
15. A wise and meditative ascetic seeks to destroy Karmas, Even a partial success in that direction confers immense spiritual powers on such a being.
विज्जोसहिणिवाणेसु, वत्थु - सिक्खागतीसु य। तवसंजमपयुत्ते य, विमद्दे होति पच्चओ || 16 ।।
16. तप और संयम में लीन आत्मा कर्मों का विमर्दन- -नाश कर विद्यौषधिलब्धि को प्राप्त करता है और वास्तु, शिक्षा एवं गति अर्थात् दृष्टिवाद का ज्ञान प्रत्यक्ष कर लेता है।
16. A soul, austere and ascetic, witnesses a decline of Karmic accumulation and attains enlightenment to command a clairvoyant eye that can unravel mysteries of existence.
274 इसिभासियाई सुत्ताई