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7. सत्तमं कुम्मापुत्तज्झयणं
सव्वं दुक्खावहं दुक्खं, दुक्खं ऊसुयत्तणं । दुक्खी व दुक्करचरियं चरित्ता सव्व - दुक्खं खवेति तवसा । तम्हा अदीणमाणसो दुक्खी सव्वदुक्खं, तितिक्खेज्जासि त्ति कुम्मापुत्तेण अरहता इसिणा बुइयं ।
समस्त दुःख दुःखदायी हैं। उत्सुकता / इच्छा, अभिलाषा दुःख है और इसको धारण करने वाला दुःखी ही है। दुःखी दुष्कर चारित्र और तपश्चर्या का आचरण कर समस्त दुःखों का क्षय कर सकता है। अतः दुःखी व्यक्ति अदीनमन होकर समस्त दुःखों को सहन करे ।
ऐसा अर्हत् कूर्मापुत्र ऋषि बोले।
All anguish is painful. Impatience, inquisitiveness, desire are woes. One suffering from these drives is unhappy. He ultimately discards all woes by means of embracing asceticism and austerities. Let one puritanically stand all woes falling to his lot.
So spoke kurmaputra, the enlightened seer. जणवादो ण ताज्जा, अत्थित्तं तवसंजमे । समाधिं च विराहेति, जे रिट्ठचरियं चरे ॥1॥
1. जनवाद — लोकनिन्दा तप और संयम के अस्तित्व का रक्षण नहीं कर सकती। जो दुरिताचरण करते हैं वे समाधि का नाश करते हैं।
1. Indulging in gossip and character assassination is antipathetic to asceticism and spiritual practices. Such wanton beings ruin their spiritual attainment.
आलस्सेणावि जे केइ, उस्सुअत्तं ण गच्छति । तेणावि से सुही होइ, किन्तु सद्धी परक्कमे ।।2।।
2. जो कोई प्रमादवश भी उत्सुकता / इच्छा की ओर गमन नहीं करता है उससे भी वह सुखी होता है, किन्तु श्रद्धाशील अथवा धैर्यशील प्रमादाचरण न करे, श्रेष्ठ पुरुषार्थ करे ।
7. कूर्मापुत्र अध्ययन 265