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16. असाधु और असंयत होने पर भी यदि दूसरे लोग मुझे साधु और संयत कह कर मेरी प्रशंसा करते हैं, तो उनकी वह प्रशंसा मेरी असंयत आत्मा को सान्त्वना नहीं दे सकती।
16. While I am a libidinous crook, laurels reserved for saints will not console my anguished soul.
जइ मे परो विगरहाति, साधु सन्तं णिरंगणं। ___ण मे सकोसए भासा, अप्पाणं सुसमाहितं।।17।।
17. यदि मैं साध, शान्त और निर्लेप हैं, फिर भी दसरे लोग मेरे से घृणा व मेरी अवमानना करते हैं तो उसकी आक्रोशमयी वाणी मेरी समाधि युक्त आत्मा के आक्रोश का कारण नहीं बन सकती।
17. If I am chaste, calm and pious; deprecation and caluminy from others will hardly be able to tamper with my inborn quietude.
जं उलूका पसंसन्ति, जं वा णिन्दन्ति वायसा।
जिंदा वा सा पसंसा वा, वायुजाले व्व गच्छति।।18।। 18. उलूक जिसकी प्रशंसा करें और कौए जिसकी निन्दा करें; वह निन्दा और प्रशंसा, दोनों ही वायुजाल (हवा) की तरह उड़ जाते हैं।
18. Laurels from fools and reprehension from crooks carry little weight and evaporate in no time.
जं च बाला पसंसन्ति, जं वा णिन्दन्ति कोविया।
णिन्दा वा सा पसंसा वा, पप्पा ति कुरुए जगे।।19।।
19. अज्ञानी जिसकी प्रशंसा करते हैं और क्रोधी जिसकी निन्दा करते हैं। ऐसी निन्दा और प्रशंसा इस मायावी जगत में सर्वत्र विद्यमान है।
19. Such is the nature of this illusory universe that we find indiscreet folk conferring honours and irascible fellows condemning some one or the other.
जो जत्थ विज्जती भावो, जो वा जत्थ ण विज्जती।
सो सभावेण सव्वो वि, लोकम्मि तु पवत्तती।।20।। 20. जो भाव (पदार्थ) यहाँ विद्यमान हैं अथवा जो भाव (पदार्थ) यहाँ अविद्यमान हैं वे सब पदार्थ इस समस्त विश्व में स्वाभाविक रूप से प्रवर्तमान (सक्रियरूप से विद्यमान) रहते हैं।
256 इसिभासियाई सुत्ताई