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सुकडं दुक्कडं वा वि, अप्पणो यावि जाणति ।
ण य णं अण्णो विजाणाति, सुक्कडं णेव दुक्कडं ।।12।।
12. अपने सुकृत (अच्छे ) या दुष्कृत (बुरे कर्मों को स्वयं ही जानता है, किन्तु अन्य व्यक्ति किसी दूसरे के अच्छे या बुरे कर्मों को नहीं जान सकता है।
12. It is not given to others to know the moral texture of one's deeds. It is he alone who owns this knowledge.
रं कल्लाणकारि पि, पावकारिं ति बाहिरा । पावकारिं अपि ते बूया, सीलमंतो त्ति बाहिरा ॥13॥
13. बाहरी दुनिया वाले अर्थात् अज्ञानिवृन्द कल्याणकारी को भी पापकारी बतलाते हैं और अज्ञानिवृन्द पापकारी को भी सदाचारी बतलाते हैं।
13. To an ignorant, good deeds might appear as tainted and
vice versa.
चोरं पिता पसंसन्ति, मुणी वि गरिहिज्जती ।
ण से इत्तावताऽचोरे, ण से इत्तावताऽमुणी ।। 14 ।।
14. अज्ञानी लोग चोर की भी प्रशंसा करते हैं और मुनि की भी गर्हा (घृणा) करते हैं। उन अज्ञानिवृन्द की प्रशंसा या निन्दा से चोर साहूकार नहीं बन जाता है और मुनि असंयमी नहीं बन जाता ।
14. The ignorant adulate the burglar and disparage the saint. Such opinions leave the meanness of a burglar and nobility of a saint intact.
णण्णस्स वयणाऽचोरे, णण्णस्स वयणाऽमुणी ।
अप्पं अप्पा वियाणाति, जे वा उत्तमणाणिणो ।।15।।
15. अन्य किसी के कहने से कोई चोर नहीं बन जाता है और किसी दूसरे की वाणी से कोइ मुनि (संयमी) नहीं बन जाता। अपनी आत्मा को वह स्वयं जानता है अथवा उत्तमज्ञानी (सर्वज्ञ) जानते हैं।
15. Appellation of the like epithet does not reduce one to a common criminal nor ennoble one to sainthood. The subject himself or the enlightened one alone knows the true moral worth of an individual.
जड़ मे परो पसंसत्ति, असाधु साधु माणिया । भासा, अप्पाणं असमाहितं । । 16 ।।
साता
4. अंगिरस अध्ययन 255