________________
दुक्खमूलं च संसारे, अण्णाणेण समज्जितं । मिगारि व्व सरुप्पत्ती, हणे कम्माणि मूलतो ।। 8 ।।
8. जीव अज्ञान के कारण इस दुःखमूलक संसार का उपार्जन करता है। जिस प्रकार सिंह बाण के चालक को नष्ट करता है, इसी प्रकार (हे जीव !) तू संसार के आवागमन के मूल कारण कर्म को समूल नष्ट कर दे।
8. Individual generates the woeful world owing to his ignorance. As does a lion pounce upon and destroy the hunter, so be it your destiny, O individual, to nip the root cause of Karma. एवं से सिद्धे बुद्धे विरते विपावे दन्ते दविए अलं ताई णो पुणरवि इच्चत्थं हव्वमागच्छति त्ति बेमि ।
इइ बिइयं वज्जियपुत्तज्झयणं ।
इस प्रकार वह मुमुक्षु निर्मल, बुद्ध, विरत, निष्पाप, जितेन्द्रिय, वीतराग एवं पूर्ण त्यागी बनता है और वह पुनः भविष्य में इस लोक में नहीं आता है, अर्थात् उसकी भव-परम्परा समाप्त हो जाती है।
ऐसा मैं (वज्जियपुत्त, वात्सीपुत्र ऋषि) कहता हूँ।
वज्जियपुत्त नामक दूसरा अध्ययन पूर्ण हुआ । 2 ।
This is the means, then, for an aspirant to attain purity, enlightenment, emancipation, piety, abstinence and nonattachment. Such a being is freed of the chain of reincarnations.
Thus, I, Vajjiputta (Vatsiputra) the seer, do pronounce.
246 इसिभासियाई सुत्ताई
...