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2. बिइयं वज्जियपुत्तज्झयणं
जस्स भीता पलायन्ति, जीवा कम्माणुगामिणो । तमेवादाय गच्छन्ति, किच्चा दिन्नं व वाहिणी ॥1॥
वज्जियपुत्त्रेण अरहता इसिणा बुझतं ।
1. कर्मानुगामी जीव जिस दुःख से भयभीत होकर पलायन करते हैं, किन्तु कर्मवश वे इसी दुःख को पुनः प्राप्त करते हैं। जैसे कि, युद्ध में पराजित सेना त्रस्त होकर पलायन करती हुई मूर्खता से शत्रु के चंगुल में पुनः फंस जाती है।
ऐसा अर्हत् वज्जियपुत्त ( वज्रिक पुत्र, वात्सीपुत्र) ऋषि कहते हैं।
1. A Self in Karmic bondage flees from unhappiness but is renoosed by his karmas to his unhappy desert. It is like a fatuously fleeing defeated army to be recaptured by the potent foe.
Vajjiputta, the enlightened, says thus :
दुक्खा परिवित्तसन्ति पाणा मरणा जम्मभया य सव्वसत्ता । तस्सोवसमं गवेसमाणे अण्णे आरंभतासए ण सत्ते || 2 ||
2. प्राणी दुःख से परित्रस्त हैं और समस्त जीव जन्म तथा मरण के भय से आतंकित हैं। वे प्राणी दुःख के उपशमन की खोज में रहते हुए भी आरम्भ – हिंसा आदि पाप कर्मों से भय नहीं खाते हैं।
2. All living beings are oppressed with unhappiness and the woeful chain of incarnations. All shun woe and still fail to ward off sinful enterprise and violence.
गच्छंति कम्मेहि सेऽणुबद्धे, पुणरवि आयाति से सयंकडेणं । जम्मण - मरणाइ अट्टे, पुणरवि आयाति से सकम्मसित्ते ।। 3 ।।
3. वह स्वकृत कर्मों से अनुबद्ध- प्रतिबद्ध ( बंधा हुआ) होकर चलता है। वह स्वकृत कर्मों के द्वारा ही पुन: इस संसार में आता है। वह स्वकृत कर्मों से सिंचित जन्म और मृत्यु आदि के दुःखों को पुनः पुनः प्राप्त करता है और संसार में परिभ्रमण करता है।
244 इसिभासियाई सुत्ताई