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________________ ऋषिभाषित की भाषा ऋषिभाषित का भाषायी स्वरूप एवं छन्द-योजना को लेकर प्रो. शूबिंग ने अपनी भूमिका में विस्तार से विचार किया है। उन्होंने उपलब्ध विभिन्न हस्तप्रतों में प्राप्त पाठान्तरों की भी चर्चा की है, अतः इस सम्बन्ध में और अधिक विवेचन न तो आवश्यक ही है और न मैं उसके लिये अपने को अधिकारी विद्वान् ही मानता हूँ। फिर भी मेरी दृष्टि में प्रो. शुब्रिग द्वारा सम्पादित मूलपाठ के भी भाषायी दृष्टि से पुनः सम्पादन की आवश्यकता अनुभव करता हूँ। जहाँ तक ऋषिभाषित की भाषा का प्रश्न है, वह अर्धमागधी का प्राचीन रूप है, जिसकी कहीं-कहीं संस्कृत से निकटता देखी जाती है। भाषा की प्राचीनता की दृष्टि से उसे आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध और सूत्रकृतांग-उत्तराध्ययन के मध्य रखा जा सकता है। जहाँ सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन में महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव आ गया है, वहाँ ऋषिभाषित की भाषा सामान्यतया महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव से मुक्त कही जा सकती है। यद्यपि इसमें भी किञ्चित् रूप महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित प्रतीत होते हैं। किन्तु, उन स्थलों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह प्रभाव लहियों (प्रतिलिपिकारों) के दोष के कारण ही आया होगा। उदाहरण के रूप में ऋषिभाषित के 45 अध्ययनों में से 43 अध्ययनों में 'बुइयं' अथवा 'बुइतं' शब्द का प्रयोग है, किन्तु इनमें भी 36 अध्ययनों में 'बुइतं' पाठ है, मात्र 7 अध्ययनों में 'बुइयं' पाठ है। निश्चित ही 'बुइयं' पाठ महाराष्ट्री प्रभाव का सूचक है, किन्तु यह युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता कि स्वयं लेखक ने 36 अध्यायों में 'बुइतं' पाठ रखा हो और सात में 'बुइयं' पाठ रखा हो। स्पष्ट है कि 'बइयं' पाठ लहियों की सजगता के अभाव में एवं उन पर महाराष्ट्री के प्रभाव के कारण आ गया होगा। इसी प्रकार 'जधा' और 'जहा', 'मूसीकार' और 'मूसीयार', 'ताती' और 'ताई', 'धूता' और धूयं', 'लोए' और 'लोगे' पाठों को लेकर भी चर्चा की जा सकती है। चालीसवें अध्ययन के अन्त में जहा और जधा दोनों ही पाठ एक ही पंक्ति में प्रयुक्त हुए हैं, जैसे—'जहा बलं जधा विरियं' निश्चित रूप से ये दोनों प्रयोग मूल लेखक को अभीष्ट नहीं होंगे, कालक्रम से ही यह परिवर्तन आया होगा। पुनः, जहाँ इसके तीसरे, पच्चीसवें एवं पैंतालीसवें अध्ययन में केवल जधा पाठ का ही प्रयोग देखा जाता है, वहाँ नवें, बारहवें, बाईसवें और अट्ठाईसवें अध्ययन में केवल जहा शब्द का ही प्रयोग मिलता है, अतः विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या अध्यायों के संकलन में जहाँ जिस प्रकार का पाठ था, उसे 112 इसिभासियाइं सुत्ताई
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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