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इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान में धर्मघोषसूरि कृत माने जाने वाले ऋषिमण्डल में एकरूपता नहीं है। पुनः गाथाओं के क्रम में भी भिन्नता मिलती है। अतः यह सम्भावना निरस्त नहीं की जा सकती कि वर्तमान ऋषिमण्डल प्रकरण में आचारांग-चूर्णि में उल्लिखित इसिमण्डलत्थू या ऋषिभाषित नियुक्ति की गाथाएँ हों। अतः धर्मघोषश्रमण कृत माना जाने वाला ऋषिमण्डल प्रकरण पूर्णतः धर्मघोषसूरि की ही रचना हो यह सन्देहास्पद है।।
5. ऋषिमण्डल प्रकरण की अन्तिम गाथाओं के सम्बन्ध में विचार करने पर मुझे ऐसा लगता है कि अन्तिम 3 या 4 गाथाएँ इसमें बाद में जोड़ी गई हैं। पूर्व में ऋषिमण्डल प्रकरण देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की ही वन्दना के साथ समाप्त होता होगा। क्योंकि, नन्दीसूत्र की एवं कल्पसूत्र की स्थविरावलियों में भी देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण तक के आचार्यों की ही वन्दना की गई है। यदि ऋषिमण्डल प्रकरण वस्तुतः धर्मघोषसूरि की रचना होती, तो इसमें देवर्द्धिगणि के बाद के कुछ प्रमुख आचार्य यथा सिद्धर्षि-जिनभद्र, जिनदास, हरिभद्र, सिद्धर्षि, अभयदेव और हेमचन्द्र आदि का भी उल्लेख अवश्य होता। देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के वन्दन के पश्चात् इसमें जो 4 गाथाएँ मिलती हैं उनमें एक गाथा में वर्तमान अवसर्पिणी के पंचम आरे के अन्त में होने वाले दुःप्रसहसूरि नामक मुनि, फल्गुश्री नामक साध्वी, नागिल नामक श्रावक और सत्यश्री नामक श्राविका को वन्दन किया गया है। सम्पूर्ण ऋषिमण्डल में यही एकमात्र ऐसी गाथा है जिसमें श्रावक और श्राविका को वन्दन किया गया है। पुनः पंचम काल के अन्त में होने वाले साधुसाध्वी एवं श्रावक-श्राविका का उल्लेख सर्वप्रथम तीर्थोद्गालिक एवं व्यवहार - भाष्य में मिलता है। निश्चित ही ये रचनाएँ छठी शताब्दी के पूर्व की नहीं है। इसके पश्चात् की अगली गाथा में भरत, ऐरावत और विदेह के भूतकालिक
और वर्तमानकालिक ऋषियों को समुच्चय रूप में वन्दन किया गया है। इसके पश्चात् की गाथा में ब्राह्मी, सुन्दरी, राजीमती, चन्दना आदि को वन्दन किया गया है। साध्वियों को वन्दन इन्हीं गाथाओं में हुआ है। अन्तिम गाथा में ग्रन्थ के रचयिता के रूप में धर्मघोषसरि का उल्लेख हआ है। इसमें भी लेखक ने अपने को 'श्रीधर्मघोष' (सिरिधम्मघोस) कहा है। लेखक द्वारा अपने आगे 'श्री' का प्रयोग भी विचारणीय है। मुझे लगता है कि ये गाथाएँ प्राचीन 'इसिमण्डलत्थू' को ही कुछ संशोधित-परिवर्द्धित करके बाद में जोड़ दी गई होंगी। यदि यह स्वतन्त्र रचना भी मानी जाये तो भी यह मानने में तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि प्रस्तुत कृति आचारांग चूर्णि में उल्लिखित इसिमण्डलत्थू के आधार पर निर्मित हुई होगी। विद्वानों से इस सम्बन्ध में गम्भीर गवेषणाओं की अपेक्षा है।
ऋषिभाषित : एक अध्ययन 111