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ग्रन्थ अवश्य था। आचारांग-चूर्णि के कर्ता जिनदासगणि महत्तर माने जाते हैं। विद्वानों ने इनका समय विक्रम संवत् 650 से 750 तक माना है। नन्दीचूर्णि में उसका रचनाकाल शक सं. 598 अर्थात् वि. सं. 733 उल्लिखित है। अतः आचारांगचूर्णि भी लगभग इसी काल की होगी। इससे यह सिद्ध होता है कि 'इसिमण्डलत्थू' इसके पूर्व अर्थात् कम से कम छठी शताब्दी की रचना अवश्य होगी। विद्वानों ने नियुक्तियों के रचयिता भद्रबाह (द्वितीय) का काल भी यही माना है। यहाँ यह भी सम्भावना हो सकती है कि भद्रबाहु द्वितीय ने ऋषिभाषित-नियुक्ति लिखने की प्रतिज्ञा की हो, किन्तु बाद में उनके स्थान पर स्वयं 'इसिमण्डलत्थू' की रचना की हो। आचारांग चूर्णि में उल्लिखित 'इसिमण्डलत्थू' का वास्तविक स्वरूप क्या था, आज यह बता पाना कठिन है।
4. ऋषिमण्डल को धर्मघोषसूरि की ही रचना मानने में एक अन्य कठिनाई यह भी है कि ऋषिमण्डल की सभी प्रतियों में वे अन्तिम गाथाएँ नहीं हैं जिसमें उसके कर्ता के रूप में धर्मघोषसूरि का नाम है। जैन विद्याशाला अहमदाबाद से प्रकाशित गुजराती भाषान्तर युक्त ऋषिमण्डल वृत्ति में भी यह गाथा नहीं है। जैसलमेर भण्डार के कैटलाग और खम्भात भण्डार के कैटलाग में ऋषिमण्डल की धर्मघोषसूरि कृत मानी जाने वाली प्रतियों में भी गाथाओं की संख्या में भिन्नता है। कुछ प्रतियों में 108 गाथाओं का उल्लेख है, कुछ में 210 और किन्हीं-किन्हीं प्रतियों में 225 तथा 233 गाथाओं का भी उल्लेख है।
मात्र यही नहीं, ऋषिमण्डलस्तव के उपलब्ध प्रकाशित संस्करणों में गाथाओं की संख्या में स्पष्ट रूप से विभिन्नता परिलक्षित होती है
(अ) ऋषिमण्डल वृत्ति शुभवर्द्धनसूरि कृत वृत्तियुक्त (प्रकाशित जैन विद्याशाला, दोशीवाडा नी पोल, अहमदाबाद सन् 1925 ई.) में 205 गाथाएँ प्राप्त होती हैं। इसमें कर्ता के रूप में धर्मघोषसूरि का उल्लेख नहीं है।
(ब) 'जैन स्तोत्र सन्दोह' में (प्रकाशित प्राचीन जैन साहित्योद्धार ग्रन्थावलि नं. 1, साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद 1932) 209 गाथाएँ है और अन्त में ग्रन्थ के कर्ता के रूप में धर्मघोषश्रमण का उल्लेख है।
(स) 'ऋषिमण्डल प्रकरण', (प्रकाशित पद्ममन्दिर गणि कृत वृत्ति सहित-सेठ पुष्पचन्द्र क्षेमचन्द्र, वलाद वाया अहमदाबाद सन् 1939 ई.) में 217 गाथाएँ उपलब्ध हैं और इसमें कर्ता के रूप में 'सिरिधम्मघोससमण' का उल्लेख है। 110 इसिभासियाई सुत्ताई