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यथावत् रख लिया गया था? अथवा ये परिवर्तन परवर्ती प्रभाव के कारण हए हैं? सामान्यतया ऋषिभाषित में प्रथम पुरुष के प्रयोग जैसे पभासती, जायति, मेधती, हिंसती, जीवती, विन्दती, विज्जती, छिन्दती, सीदति, विसुज्झती, वस्सती, सिंचति, लुप्पती आदि पाये जाते हैं और महाराष्ट्री प्राकृत के समान इनमें अन्तिम व्यञ्जन के लोप की प्रवृत्ति नहीं देखी जाती है। सम्पूर्ण ऋषिभाषित में आठ-दस स्थलों के अतिरिक्त हमें कहीं भी अन्तिम व्यंजन का लोप दृष्टिगोचर नहीं हुआ। इसी प्रकार ऋषिभाषित में 'त' श्रुति के स्थान पर 'य' श्रुति के प्रयोग भी नगण्य ही हैं। सामान्यतया सम्पूर्ण ऋषिभाषित 'त' श्रुतिप्रधान ही है। आत्मा के लिए उसमें एक-दो स्थलों को छोड़कर सर्वत्र आता शब्द का प्रयोग हुआ है। दसवें अध्ययन में सर्वत्र तेतलीपुत्त शब्द का ही प्रयोग है न कि तेयलिपुत्त—जैसा कि ज्ञाताधर्मकथा में पाया जाता है। इसी प्रकार इस अध्याय में उसकी पत्नी के लिए 'मूसिकारधूता' शब्द का प्रयोग हुआ है। यद्यपि एक स्थान पर 'धूयं' शब्द का प्रयोग भी देखा जाता है। स्पष्ट है कि ये महाराष्ट्री प्रभावित परवर्ती रूप मूल ग्रन्थ में परवर्ती प्रभाव से ही आये होंगे। हो सकता है कि जब इस ग्रन्थ की ताड़पत्रों पर प्रतिलिपियाँ की गयी होंगी, तब ये परिवर्तन उस युग की भाषा के प्रभाव के कारण प्रतिलिपिकारों के द्वारा इसमें आ गये होंगे। यद्यपि महाराष्ट्री प्राकृत का यह प्रभाव ऋषिभाषित में दो प्रतिशत से ज्यादा नहीं है, जबकि प्राचीन माने जाने वाले अर्धमागधी आगम यथा-आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और दशवैकालिक में यह प्रभाव लगभग पन्द्रह से पचीस प्रतिशत के लगभग है। यद्यपि इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि जहाँ उत्तराध्ययन और दशवैकालिक अधिक प्रचलन में रहे, वहाँ ऋषिभाषित उतना प्रचलन में नहीं रहा। फलतः उस पर उच्चारण में हुए परिवर्तनों का प्रभाव कम हुआ हो, जबकि इन ग्रन्थों के अधिक प्रचलन में रहने के कारण इनके ताड़पत्र आदि पर लिखे जाने के पूर्व ही अन्तिम वाचना तक यह प्रभाव आ चुका होगा। दुर्भाग्य से आगमों के सम्पादन के समय इन तथ्यों पर ध्यान नहीं दिया गया और उनकी भाषा के प्राचीनतम स्वरूप को सुरक्षित रखने का प्रयास नहीं किया गया। मैं समझता हूँ अर्धमागधी के प्राचीन ग्रन्थों यथा-आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, कल्पसूत्र आदि की प्राचीन हस्तप्रतों को संकलित किया जाये और यदि किसी भी हस्तप्रत में प्राचीन पाठ मिलता है तो उसे सुरक्षित रखा जाये। मात्र यही नहीं, जब एक ही पंक्ति में आता और आया, जधा और जहा, लोए और लोगे पाठ हों तो उनमें से प्राचीन पाठ को ही मान्यता दी जाये। यह सन्तोष का विषय है कि इस दिशा में प्रो. मधुसूदन ढाकी, प्रो. के. आर. चन्द्रा आदि कुछ विद्वानों ने हमारा ध्यान
ऋषिभाषित : एक अध्ययन 113