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________________ ५८ अपभ्रंश-सायिय बिद्दुम मरगय, इंदणील सय, चामियर हार संघाहिं। बहुबष्णुज्जल, गावरणहयलु सुरषण घण विज्ज बलायहि ॥ अर्थात् परस्पर जल क्रीड़ा करते हुए और सघन जल बिन्दुओं को एक दूसरे पर फेंकते हुए राजा और रानियों के चंद्र और कुंद के समान शुभ्र और उज्ज्वल टूटते हारों से कहीं जल धवल हो गया, कहीं शब्दायमान नूपुरों से शब्दयुक्त हो गया, कहीं चमकते कुण्डलों से चमकीला, कहीं सरस ताम्बूल से आरक्त, कहीं वकुल मदिरा से मत्त, कहीं स्फटिक शुभ्र कर्पूर से सुवासित, कहीं कस्तूरी से व्यामिश्रित, कहीं विविध मणि रत्नों से उज्ज्वल, कहीं धौत (धुले) कज्जल से संवलित, कहीं अत्यधिक केसर से पिंजरित, कहीं मलय चन्दन रस से भरित, कहीं यक्ष-कर्दम से करित और कहीं भ्रमरावलि से चुंबित हो उठा। सैकड़ों विद्रुम, मरकत इन्द्रनील मणियों और सुवर्णहार समूहों से जल इस प्रकार बहु वर्ण रंजित हो गया जैसे इन्द्र धनुष, विदयुत् और सघन बादलों से आकाश विविध राग रंजित हो जाता है। - एक ही प्रकार के शब्दों की पुनरावृत्ति चारणों में अत्यधिक प्रचलित थी। वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धा कांड में पंपा सरोवर के वर्णन में और रघुवंश में प्रयाग के गंगा यमुना संगम में (१३.५४-५७) इस शैली का अंश परिलक्षित होता है। ___ इसी प्रकार वसंत वर्णन (७१. १-२), सन्ध्या वर्णन (७२. ३) समुद्र वर्णन (२७. ५, ६९. २-३), गोला नदी वर्णन (३१.३), वन वर्णन (३६. १), युद्ध वर्णन (५६. ४, ५३. ६-८, ६३. ३-४, ७४.८-११) आदि काव्योपयुक्त प्रसंग बड़ी सुन्दरता से कवि ने अंकित किये हैं। पउम चरिउ में घटना बाहुल्य के साथ-साथ काव्य प्राचुर्य भी दृष्टिगत होता है । घटना और काव्यत्व दोनों की प्रचुरता इसमें विद्यमान है। घटना की प्रचुरता तो विषय के कारण स्पस्ट ही है काव्यत्व की प्रचुरता भी उपरि निर्दिष्ट स्थलों में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। __जैसा कि ऊपर निर्देश किया जा चुका है पउमचरिउ में कवि ने जैन संप्रदायानुकूल राम कथा का रूप अंकित किया है किन्तु ग्रंथ के आरम्भ में सृष्टि वर्णन, जम्बूद्वीप की स्थिति, कुलकरों की उत्पत्ति, अयोध्या में ऋषभदेव की उत्पत्ति तथा उनके संस्कारादि की और जीवन की कथा दी गई है। तदनन्तर इक्ष्वाकु वंश, लंका में देवताओं विद्याधर आदि के वंश का वर्णन किया गया है । काव्यगत विषयविस्तार इस ग्रंथ में उपलब्ध होता है । वयं विषय में धार्मिक भावना का रंग मिलता है। मेघवाहन और हनुमान के युद्ध का वर्णन करता हुआ कवि जहां उनके शूरत्वादि गुणों का निर्देश करता है वहाँ यह भी बताना नहीं भूलता कि दोनों जिनभक्त थे। वेण्णि' वि वीर घोर भयचत्ता, वेणि वि परम जिणिवहो भत्ता । प० च० ५३.८
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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