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________________ ५२ अपभ्रंश-साहित्य में जीवित रह सकें । पद्य आसानी से कंठस्थ किये जा सकते हैं अतएव प्रायः दर्श धर्मं, नीति, ज्योतिष, वैद्यक, गणित आदि सभी विषयों के ग्रंथ पद्य में लिखे गये । अपभ्रं की अनके रचनाएँ भी इसी लिये पद्म में मिलती हैं । यदि अपभ्रंश रचनाओं के सम की वही सुविधा होती जो आजकल है तो संभवतः हमें अनेक उपन्यास अपभ्रंश ग में भी उपलब्ध हो सकते और आज का उपन्यास साहित्य अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध होता अपभ्रंश महाकाव्य जितने भी उपलब्ध हो सके हैं सबके सब धार्मिक दृष्टि से लि गये प्रतीत होते हैं । यद्यपि महाकाव्यों का विषय धर्मभावनानिरपेक्ष ऐहिकता पर‍ भी हो सकता है जैसा कि संस्कृत और प्राकृत के काव्यों में दिखाई देता है किन्तु अपभ्रं में इस प्रकार के महाकाव्य नहीं दिखाई देते । संभवतः जैनेतर कवियों ने इस प्रकार के महाकाव्य रचे होंगे किन्तु उनकी सुरक्षा न हो सकी । जैन भंडारों में धार्मिक साहित्य ही प्रवेश पा सका और वही आजतक सुरक्षित रह सका । जो हो इस प्रकार के धार्मिक साहित्य को लेकर रचे गये महाकाव्यों की परंपरा में कवि स्वयंभू सबसे पूर्व हमारे सामने आते हैं । स्वयंभू की रचनाओं में उनसे पूर्ववतीं कुछ कवियों के निर्देश मिलते है। इनकी प्रौढ़ और परिपुष्ट रचना को देखकर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अपभ्रंश की यह प्रांजल परंपरा सहसा स्वयंभू से प्रकट न होकर उनसे पूर्वकाल में उत्पन्न हुई होगी, जिसका विकास स्वयंभू की रचना में आकर हुआ । स्वयंभू की तीन कृतियां उपलब्ध हैं पउम चरिउ (पद्म चरित या रामायण), रिट्ठणेमि चरिउ ( हरिवंश पुराण ) मौर स्वयंभू छन्द । इन्होंने पंचमी चरिउ भी लिखा जो अप्राप्त है । 3 किसी व्याकरण ग्रंथ की रचना भी इन्होंने की, ऐसा निर्देश मिलता है। * जीहा । १. चउमुहवस्स सद्दो सयम्भुवस्स मणहरा भद्दासय- गोग्गहणं अज्जवि कइणो ण पावन्ति ॥ छंदडिय दुबइ धुवएहि जडिय, चउमुहेण सम्मप्पिय पद्धडिय । पउम चरिउ रिट्ठणेमि चरिउ २. प्रो० एच० डी० वेलणकर ने ग्रन्थ का संपादन किया है। पहले तीन अध्याय रायल एशियाटिक सोसायटी बॉम्बे के जर्नल सन् १९३५ पृष्ठ १५-५८ में और शेष बॉम्बे युनिवर्सटी जर्नल, जिल्द ५, संख्या ३, नवम्बर १९३६ में प्रकाशित हुए हैं । पउम चरिउ की अन्तिम प्रशस्ति में निम्नलिखित पद्य मिलता हैasमुह-सयंभुवाण वण्णियत्थं तिहुयण-सयंभु- रइयं पंचमि चरियं ३. अचक्खमाणेण । महच्छरियं ॥ तावच्चिय सच्छंदो भमइ अवब्भंस - मच्च-मायंगो | .४ जाव ण सयंभु- वायरण - अंकुसो पडइ ॥ सच्छद्द - वियड-दाढो छंदालंकार - णहर-दुप्पिक्छो । वामरण- केसरड्ढो सयंभु- पंचाणणो जयउ ॥ पउम चरिउ को प्रारम्भिक प्रशास्ति
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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