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________________ अपभ्रंश साहित्य का संक्षिप्त परिचय सन्धियों में विभक्त होते हैं। प्रत्येक सन्धि कुछ कड़वकों से मिलकर बनती है । कड़क्क की समाप्ति घत्ता से होती है। कहीं कहीं पर सन्धि के प्रारम्भ में दुवई या घत्ता भी मिलता है जिसमें संक्षेप से सन्धि का सार दिया होता है। प्रत्येक सन्धि में कितने कड़वक हों ऐसा कोई निश्चित नियम नहीं मिलता। कड़वक का मूलभाग पज्झटिका, पादाकुलक, वदनक, पाराणक, अलिल्लह आदि छंदों से बनता है । कुछ महापुराण और पुराण ग्रंथ का डों में भी विभक्त मिलते हैं। प्रत्येक कांड कई सन्धियों से मिल कर बनता है। कृति के आरम्भ में मंगलाचरण मिलता है। सज्जन दुर्जन स्मरण, आत्म विनय आदि भी काव्य के आरम्भ में प्रदर्शित किये गये हैं। अपभ्रंश काव्यों में हमें भाषा की दो धाराएं बहती हुई दिखाई देती हैं। एक तों प्राचीन संस्कृत-प्राकृत परिपाटी को लिये साहित्यिक भाषा है; जिसमें पदयोजना, अलंकार, शैली आदि प्राचीन अलंकृत शैली के अनुसार हैं। दूसरी धारा अपेक्षाकृत अधिक उन्मुक्त और स्वछंद है। इसमें भाषा का चलता हुआ और सर्धसाधारण का बोलचाल वाला रूप मिलता है। कुछ कवियों ने एक धारा को अपनाया कुछ ने दूसरी को पसंद किया। पुष्पदंत जैसे प्रतिभाशाली कवियों की रचनाओं में दोनों धारायें बहती हुई दिखाई देती हैं। ___ अपभ्रंश कवियों की एक विशेषता यह रही है कि इन्होंने रूढ़ि का पालन न करते हुए प्रत्यक्ष अनुभूत और लौकिक जीवन से संबद्ध घटनाओं का वर्णन किया है । किसी दृश्य का वर्णन हो कवि की आँखों से यह लौकिक जीवन ओझल नहीं हो पाता। लौकिक जीवन की अनुभूति उसकी भाषा में उसके भावों में और उसकी शैली में समान रूप से अभिव्यक्त हुई है। कवि चाहे स्वर्ग का वर्णन कर रहा हो, चाहे पर्वत के उत्तुंग शिखर का, चाहे कान्तार प्रदेश का, वह मानव जीवन की ग्राम्य जीवन की घटनाओं को नहीं भूल पाता। यह प्रवृत्ति उसकी भाषा में मिलती है, उसके विषयवर्णन में मिलती है और उसकी अलंकार योजना में मिलती है। अलंकारों में अप्रस्तुत विधान के लिए कवि प्राचीन, परंपरागत उपमानों का प्रयोग न कर जीवन में साक्षात् अनुभूत और दश्यमान उपमानों का प्रयोग करता है। . अपभ्रंश भाषों में एक और प्रवृत्ति दिखाई देती है वह है ध्वन्यात्मक शब्दों के प्रयोग की । भावानुकूल शब्द योजना के लिए इस से अच्छा और कोई साधन नहीं हो सकता। अर्थ की व्यंजना के लिए तदनुकूल ध्वनिसूचक शब्दों का प्रयोग उत्तर काल में जाकर मन्द हो गया। भाषा को प्रभावमयी बनाने के लिए शब्दों की और शब्द-समूहों की आवृत्ति के बनेक उदाहरण अपभ्रंश काव्यों में मिलते हैं। इसी प्रकार भाषा में अनेक लोकोक्तियों बोर वाग्धाराओं का प्रयोग इन अपभ्रंश कवियों ने किया है। इनके प्रयोग से भाषा जलती हुई और आकर्षक हो गई है । खेद है कि खड़ी बोली हिन्दी ने अपभ्रंश भाषा की प्रवृत्ति को न अपनाया। इन वाग्धाराओं के प्रयोग से भाषा सजीव और
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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