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अपभ्रंश-साहित्य ४. बाह्य कर्म-कलाप का खंडन, ५. गुरु की महत्ता, ६. शान्त रस की अभिव्यक्ति, ७. भावों की अभिव्यक्ति के लिये दोहों और पदों का प्रयोग।
अंपभ्रंश-साहित्य के जैनधर्माचार्यों और सिद्धों की आध्यात्मिक और उपदेशात्मक प्रवृत्ति दो रूपों में दिखाई देती है-रचनात्मक और ध्वंसात्मक रूप में। कुछ गुणों के ग्रहण का उन्होंने आदेश दिया और कुछ बाह्य कर्म-कलाप इत्यादि के परित्याग का । ये दोनों प्रवृत्तियां हिन्दी के सन्त-काव्य में भी दिखाई देती हैं। सिद्धों की रहस्यमयी उक्तियों ने कबीर आदि सन्तों की उलट बासियों को जन्म दिया। जिस प्रकार वज्रयानियों ने जान बूझ कर अपनी भाषा को गूढ़ रखा इसी प्रकार कबीर की भाषा भी गूढ़ है। यदि डेण्डणपाद कहते हैं
_ "वलद विआअल गबिया बांझे", "निति सिआला सिंहे सम जूझ"
अर्थात् बैल बियाया और गैया बांझ रही तथा नित्य शृगाल सिंह के साथ युद्ध करता है। इत्यादितो कबीर कहते हैं--
"है कोइ गुरु ज्ञानी जगत मई लटि वेद बूझे। पानी महें पावकं बर, अंधहि आँखिन्ह सूझे ॥
गाय तो नाहर को धरि खायो, हरिना खायो चीता ॥" इसी प्रकार"नैया विच नदिया डूबति जाय" इत्यादि अनेक वाग्वैचित्र्य के उदाहरण मिलते हैं।
पहले बताया जा चुका है कि सिद्धों ने अपनी कविता में अनेक रूपकों का प्रयोग किया है '--रुई धुनने का, विवाह का, नौका का, हरिण का, चूहे का रूपक आदि । कण्हपा ने महासुख का विवाह के रूपक द्वारा वर्णन किया--
भव निर्वाणे पटह मादला। मण पवण वेणि करण्ड कशाला ॥ जअ जअ दुन्दुहि साद उछलिला।
काण्ह डोम्बी विवाहे चलिला ॥ चर्या० १९ । कबीर भी कहते हैं
दुलहनी गावहु मंगलाचार ।
हम घरि आए हो राजा राम भरतार ॥ बाह्य कर्म-कलाप का खंडन जिस प्रकार सिद्धों ने किया इसी प्रकार इन संत कवियों
१. देखिये पीछे दसवां अध्याय, पृ० ३१८ । २. कबीर ग्रंथावली, संपादक श्याम सुन्दर दास, इंडियन प्रेस, प्रयाग,१९२८ ई०,
पृ० ८७ ।