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अपभ्रंश रूपक काव्य
३३९ कलसु विहडइ पवणु पडिकूडु। पच्छिलई च्छिक हुव । लवइ नयणु वाम्व सुनिन्भरु । एकठ्ठि साणु खरु । वेवि मिलिवि विरसई निरंतर। तं अवसवणु निएवि तहिं । उम्भउ घक्कइ ताम । इत्तहि जिण सामिय बलहो चिंधई दिट्ठहि ताम।
सुर विद नवियस्स, सिरि जिण वरिदस्स। तहु सिन्नु संचलइ, तइलोउ खलभलइ। गिरि राउ टलटलइ, जलरासि मल मलइ। फणि राउ लवलवइ, सुरराउ चलवलइ। घरणियलु खलभलइ, जयजीव जणु लवइ । वर भड सहायस्स, तह मयण रायस्स। निय वल सउन्नाई, चलियाई सिन्नाई। धावंत भर भडइं, फरहरिय धयबडइं। चल वलिय हय घडई, गुलगुलिय गय घडई। भवणयल पूराइं, पडु पडह तुराई।
वर . वीर धीराई, पुलइय सरीराइं। २.८ नागदेव ने अपनी मदन पराजय नामक कृति की रचना इसी ग्रंथ के आधार पर की।
मयण जुन • कवि वुच्चराय कृत मयण जुज्झ नामक एक रूपकात्मक कृति का निर्देश प्रो० राजकुमार जैन ने मदन पराजय की प्रस्तावना ( वही पृ० ५० ) में किया है। इसकी रचना कवि ने वि० सं० १५८९ में की।
कृति में भगवान् पुरुदेव द्वारा किये गये मदन पराजय का सुन्दरता से वर्णन किया गया है। कवि आरम्भ में ही उपदेश देता है
रिसह जिणवर पढम तित्ययर, जिण धम्मउ घरण, जुगल धम्म सम्वइ निवारण, नाभिराय कुलि कवल, सव्वाणि संसार तारण । जो सुर इंदह वंदीयउ, सदाचलण सिर धारि। कहि किउ रतिपति जित्तियउ, ते गुण कहलं विचारि ॥ इस प्रकार रूपक-काव्य शैली की परम्परा संस्कृत और अपभ्रंश के अनन्तर हिन्दी में भी प्रवाहित होती रही। सूफियों के प्रबन्ध काव्य इसी परम्परा के अन्तर्गत हैं। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने भारतदुर्दशा और भारतजननी नामक नाटकों में इसी शैली का अनुसरण किया । आधुनिक युग में जयशंकर प्रसाद के कामायनी नामक काव्य में इसी परम्परागत शैली की छाप स्पष्ट दिखाई देती है ।