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________________ अपभ्रंश रूपक काव्य जेसु पंच वि एयई, कयबहु खेयई, खिल्लाह पहु ! तसु कउ कुसलु ॥ २६ ॥ जिन भृत्यों के जन्म कुलादि का विचार किये बिना उन्हें रखा जाय वे दु:ख देते हैं । उनके कुल का विचार होने पर इन्द्रियाँ कहने लगीं :- हे प्रभु ! चित्तवृत्ति नामक महाटवी में महामोह नामक नरपति है । उसकी महामूढ़ा महादेवी है । उसके दो पुत्र हैं - एक राग-केसरी जो राजसचित्त-पुर का स्वामी है । और दूसरा द्वेष-गयंद जो तामसचित्त-पुर का स्वामी है । उसका मिथ्या दर्शन नामक महामन्त्री हैं । मद, क्रोध, लोभ, मत्सर, काम प्रभृति उसके भट हैं । एक बार मिथ्यादर्शन नामक मंत्री ने आकर दुहाई दी कि हे राजन् ! आश्चर्य है, चारित्र्य धर्म नामक राजा का चर संतोष आपके प्रजाजनों को विवेक गिरि, पर स्थित जैनपुर में ले जाता है । तब मोहराज ने सहायता के लिये इन्द्रियों को नियुक्त किया इस प्रकार रूपकान्तर्गत दूसरा रूपक मिलता है, मन द्वारा दोष दिये जाने पर इन्द्रियों ने मन को दोषी ठहराया और कहा कि मन के निरोध करने पर हमारा व्यापार स्वयं रुक जाता है । "जं तेसु फुरइ रागो दोसो वा तं मणस्स माहप्पं । विरमइ मणम्मि रुद्धे जम्हा अम्हाण वावारो" ॥४९॥ इस प्रकार क्रमशः कभी इन्द्रियों को, कभी कर्मों को और कभी काम वासना को दुःख का कारण बताया गया । वाद-विवाद बढ़ जाने पर आत्मा, स्वानुभूति से उन्हें प्रशम का उपदेश देता है : " इय परोपरु मणह इंदियह, पंचन्ह वि कलह भरि, वट्टमाणि अह अप्पराइण, संलत्तु भो ! निठुर ! हु, करहु पसमु नणु किं विवाइण ? - भवि भवि एत्तिउ कालु किउ मइ तुम्हह संसग्गु । जइ पुणु लग्गइ पसम गुणु सो थेवो वि न लग्ग् ॥६५॥ --- ३३७ अन्त में मनुष्य - जीवन की दुर्लभता का प्रतिपादन करते हुए तथा जीव दया और व्रतों के पालन का उपदेश देते हुए कथा समाप्त होती है । इस प्रकार कथा में उपदेशवृत्ति ही प्रधान है । काव्यत्व का अभाव है । कथा में भी मनोरंजकता का अभाव है । बीच बीच में सुभाषितों का प्रयोग अवश्य मिलता है : जं पुणु तुहु जंपेसि जड ! तं असरिसु पडिहाइ । मण निल्लक्खण किं सहइ नेऊरु उड्ढह पाइ ॥७॥ मूर्ख ! तुम जो कहते हो वह तुम्हारे योग्य नहीं प्रतीत होता । हे निर्लक्षण मन ! क्या ऊंट के पैर में नूपुर शोभा देते हैं ?
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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