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अपभ्रंश मुक्तक काव्य--३ तुम्हारे मुख के दर्शन करेगा।
"मंचहि संदरि पाव अप्पहि हसिऊण सुम्मुहि खग्गं मे। कप्पिअ मेच्छ सरीर पेच्छ३ वअगाइ तुम्ह धुअ हम्मीरो॥"
(पृ. १२७) युद्धोद्यत सेना का दृश्य निम्नलिखित पद्य में अनुरणनात्मक-शब्द-योग द्वारा कितना प्रभावोत्पादक हो गया है।
"खुर खुर खुदि खुदि महि घघर रव कलइ, ण ण ण णगिदि करि तुरअ चले। ट ट ट गिदि पलइ टपु धसइ धरणि वपु चकमक करि बहु दिसि चमले । चलु दमकि दमकि वल चलइ पइक वल घुलकि धुलकि करि करि चलिआ । वर मणु सअल कमल विपख हिअअ सल,
हमिर वीर जब रण चलिआ ॥" (पृ. ३२७) निम्नलिखित युद्ध वर्णन भी अत्यन्त सजीव है
"गज गअहि ढुक्किअ तरणि लुश्किअ, तुरअ तुरअहि जुझिआ। रह रहहि मोलिअ धरणि पीलिअ, अप्प पर गहि बुझिआ ॥ वल मिलिअ आइअ पत्ति जाइउ, कंप गिरिवर सीहरा। उच्छलइ साअर दीण काअर, वइर वढिअ दोहरा ॥" (पृ० ३०९) ऋतु वर्णन-- "णच्चइ चंचल विज्जलिआ सहि ! जाणए,
मम्मह खग्ग किणीसइ जलहर-साणए। फुल्ल कअंबअ अंबर डंबर दीसए,
पाउस पाउ घणाघण सुमहि ! वरीसए ।" (पृ. ३००) पावस में बिजली चमकती है वियोगिनी के लिए मानो कामदेव मेघ रूपी सान पर सलवार को तेज कर रहा है। कवि वसन्त का बर्णन करता है--
"वहइ मलअ-वाआ हत! कंपंत काआ, हणइ सवण-रंधा कोइला-लाव-बंधा। सुणिअ दह दिहासु भिंग-झंकार-भारा, हणिअ हणइ हंजे ! चंड-वंडाल-मारा ॥" (पृ० ४९३)
१. कलइ--करती है। तुरअ--तुरग, घोड़े। पलइ टपु--टाप पड़ती है। चमले
चमर। पइक बल---पदाति सेना। विपख--विपक्ष, शत्र।