SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२४ अपभ्रंश-साहित्य निम्नलिखित पद्य में मिलती है "चूडुल्लउ चुण्णी होइसहि मुद्धि कवोलि निहित्तउ । सासानल-जाल-झलक्किअउ वाह-सलिल-संसित्तउ ॥ (वही ८.४.३९५) विरहिणी के लिये वह प्रिय सन्देश व्यर्थ है जिससे प्रिय मिलन नहीं होता : "संदेसें काई तुहारेण जं संगहो न मिलिज्जइ। सुअणन्तरि पिएं पाणिएण पिअ पिआस किं छिज्जइ॥ (वही ८.४.४३४) वीरता "भल्ला हुआ ज मारिआ बहिणि महारा कन्तु । लज्जेज्जं तु वयंसिअहु जइ भग्गा घर एन्तु ॥" (वही ८.४.३५१) अर्थात् बहिन अच्छा हुआ जो मेरा पति रणभूमि में मारा गया। यदि पराजित हो वह घर लौटता तो मैं अपनी सखियों के सामने लज्जित होती। "अम्हे थोवा रिउ बहुअ कायर एम्व भणन्ति । मुद्धि निहालहि गयणयलु कइ जण जोण्ह करन्ति ॥" (वही ८.४.३७६) निम्नलिखित पद्य में प्रियतम की युद्ध-वीरता के साथ दान-वीरता की प्रशंसा करती हुई कोई नायिका कहती है "महु कन्तहो वे दोसड़ा हेल्लि म झंखहि आल। देन्तहो हउँ पर उव्वरिअ जुज्झन्तहो करवालु ॥" (वही ८.४.३७९) अर्थात् हे सखि ! मेरे प्रियतम से केवल दो दोष हैं, झूठ मत कहो। उस के दान देते हुए केवल मैं बच रहती हूँ भौर युद्ध करते हुए केवल तलवार। एक क्षत्रिय बाला क्या वर मांगती है-- "आयहि जहिं अन्नहिं वि गोरि सु दिज्जहि कन्तु । गय मतहं चत्तंकुसहं जो अभिडइ हसन्तु ॥" (वही ८.४.३८३) हे गौरी ! मुझे इस जन्म में और अन्य जन्मों में ऐसा ही पति देना जो हँसता हँसता निरंकुश मत्त गजों के साथ भिड़ने वाला हो। .. "जसु भुअबलु हेलुद्धरिअ-धरणि, णिसुणिवि वणयर-गण-उबगीउ सुविक्कम। अज्जवि हरिसिअ नव-दग्भंकुर-दभिण, पयहिं कुल-महिहर पुलउग्गम् ॥" (छन्दोऽनुशासन पृ० ४५)
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy