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अपभ्रंश-साहित्य
जल प्रतिबिम्बित चन्द्र के समान वह तत्व न सत्य है न मिथ्या । उस का ज्ञान कठिन है, क्योंकि उसके वास्तविक स्वरूप का कोई चिह्न नहीं। उसका व्याख्यान भी नहीं किया जा सकता है।
दारिक पा--यह लुई पा के शिष्य थे। प्रसिद्धि है कि पहिले यह ओड़ीसा के राजा थे बाद में लुईपा से प्रभावित होकर उन के शिष्य बन गए। इन के साथ इन के मंत्री डेंगी पा भी उन के शिष्य बन गये। गुरु के आदेश से सिद्धि प्राप्ति के लिए यह अनेक वर्षों तक कांचीपुरी में एक गणिका की सेवा में लगे रहे । सिद्धि प्राप्ति के अनन्तर इन का नाम दारिक पा पड़ा। इन के शिष्य वजू घंटा पाद थे। इन की महासुखवाद परक एक रहस्यमयी कविता का उदाहरण देखिये- ..
राग वराही सुन करुण रे अभिनचारे काअ वाक् चिएँ। विलसइ' दारिक गणत पारिमकुलें।
किन्तो मन्ते किन्तो तन्ते किन्तो रे झाण वखाणे अपइठान महासुहलीलें दुलक्ख परम निवाणे ॥
राआ राआ राआरे अदर राअ मोहे रे बाधा लुइ पाअ पए दारिक द्वादश भुअणे लाधा।
(चर्यापद, ३४) शून्य करुणा की अभिन्नता से दारिक पा गगन के परम पार तट पर विलास करता है। तन्त्र मन्त्र ध्यान व्याख्यान सब को व्यर्थ समझता है । इस अवस्था में पहुँच कर ही वह वास्तव में राजा हुआ, अन्य राज्य तो मोह के बन्धन है । लुई पा के चरणों का आश्रय लेने से दारिक पा ने बारह भुवन प्राप्त कर लिए।
___ कण्ह पा (कृष्ण पाद)-कर्णाटक देश में एक ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण इन को कर्ण पा और शरीर का रंग काला होने से कृष्ण पा या कण्ह पा कहते थे। राहुल जी ने यद्यपि इन्हें ब्राह्मण कुलोत्पन्न माना है किन्तु श्री भट्टाचार्य ने इन्हें जुलाहा जाति में उत्पन्न उड़िया भाषी कहा है।' महाराज देवपाल (८०९-८४९ ई०) के समय में यह एक पण्डित भिक्षु थे और कितने ही दिनों तक सोमपुरी विहार (पहाड़ पुर, जि० राज शाही) में रहे। पीछे से यह सिद्ध जालन्धर पाद के शिष्य हो गए। चौरासी सिद्धों में कवित्व और विद्या की दृष्टि से यह सब से बड़े सिद्ध माने जाते थे। चौरासी सिद्धों में से सात से अधिक इन के शिष्य गिने गए हैं। उस समय सिद्धों का गढ़ विहार प्रदेश था। इन के दर्शन पर लिखे छह और तन्त्र पर लिखे चौहत्तर ग्रन्थों के तन्जूर में मिलने का राहुल जी
१. साधनमाला, भाग २, प्रस्तावना, पृ० ५३ ।