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अपभ्रंश भाषा का विकास
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प्रथमा विभक्ति एकवचन में प्रो के स्थान पर उ का और सप्तमी के एकवचन में ए के स्थान पर इ का व्यवहार चल पड़ा ( देवो = देवु, देवे = देवि श्रादि ) | संज्ञा रूपों और धातुरूपों की जटिलता और अनेकरूपता इस काल में और भी कम हो गई । प्रथमा और द्वितीया विभक्ति का रूप एक समान हो गया । पंचमी, षष्ठी और सप्तमी के बहुवचन के रूप भी समान से हो गये । ( पंचमी बहु० गिरिहूं, षष्ठी बहु० गिरिहं — गिरिहुं, सप्तमी बहु० गिरिहुं श्रादि) । विभक्तिरूपों की समानता के कारण शब्दों के अर्थ-ज्ञान में कठिनता होने लगी और परिणाम स्वरूप अनेक परसर्गों का प्रयोग प्रारम्भ हो गया । ( मरणमहि = मन में, मइतरिण = मेरा इत्यादि ) । धातु रूपों में भी भिन्न-भिन्न कालों को सूचित करने वाले हो गया । वर्त्तमान काल ( लट् ), सामान्य भविष्य ( लृट् ) और प्रज्ञा ( लोट् ) के
अनेक लकारों का अभाव
रूप अधिकता से प्रयुक्त होने लगे । भूतकाल सूचक भिन्न-भिन्न लकारों के स्थान पर क्त प्रत्यय या निष्ठा का ही प्रयोग चल पड़ा । इस प्रवृत्ति का पूर्ण विकास प्राधुनिक भारतीय आर्यभाषा काल की भाषाओं में दिखाई देता है, जैसा हम आगे चल कर स्पष्ट रूप से देख सकेंगे ।
मध्यकालीन भारतीय श्रार्यभाषा काल में संस्कृत के अतिरिक्त द्राविड़ और 'आस्ट्रिक' भाषाओं से भी शब्द लेने में संकोच न रहा । इन भाषाओं के प्रभाव के कारण अनेक अनुरणनात्मक शब्द ( यथा तडि, तड़, यडइ, फरिण फुप्फुयंतु आदि) इस काल की भाषाओं में आ गये । संस्कृत भाषा भी मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा काल की भाषाओं से प्रभावित हुई, जिससे मनोरथ, = मनोर्थ भट्टारक = भर्त्ता, वट, नापित, पुतलिका आदि शब्द संस्कृत में प्रवेश पा गये ।
समय पाकर साहित्यिक प्राकृतों के व्याकरण बने । वैयाकरणों के श्राग्रह में बंध जाने के कारण इन प्राकृतों का स्वाभाविक विकास रुक गया । इनकी भी वही 'श्रवस्था हुई जो संस्कृत की हुई थी । इधर तो साहित्यिक प्राकृतों में साहित्य रचा जा रहा था और उधर सर्व साधारण की बोल-चाल की भाषाएँ व्यवहार में आगे बढ़ रही
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भाषाएँ और भी
थीं । साहित्यिक प्राकृतों के विकास के रुक जाने पर ये बोलचाल की आगे बढ़ीं और अपभ्रंश के नाम से ख्यात हुई । धीरे-धीरे अपभ्रंश ने क्षेत्र में स्थान पाया और अपभ्रंश में भी साहित्य रचा जाने लगा ।
भी साहित्य के
आरम्भ में अपभ्रंश को आभीरों की भाषा माना जाता था । 'आभीरोक्ति' या 'प्राभीरादिगिरः' का यही अभिप्राय है कि अपभ्रंश वह भाषा है जिसका काव्य में प्राभीरादि निम्नवर्ग के लोग प्रयोग करते थे । इसका यह अभिप्राय नहीं कि अपभ्रंश श्राभीर लोगों की निजी भाषा थी । या श्राभीरादि लोग इस भाषा को अपने साथ कहीं से लाये । वास्तव में आभीर या उनके साथी जहाँ-जहाँ गये, उन्होंने तत्तत्स्थानीय ... प्राकृत को अपनाया और उसमें निज स्वभावानुकूल स्वर या उच्चारण-संबन्धी परिवर्तन कर दिये । श्राभीर स्वभाव के कारण इसी परिवर्तित एवं विकृत या विकसित