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________________ अपभ्रंश-साहित्य य्य् रूप में ही प्रयुक्त होते हैं । जैसे—यथा=यधा, जानाति=याणदि, अदय-अय्य, घ-गण के स्थान पर ञ् ञ् का प्रयोग । यथा-पुण्य =पुन् । - ङ:-अकारान्त संज्ञा के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ओ के स्थान पर ए का रूप । यथा देवो= देवे । मागधी प्राकृत में साहित्य उपलब्ध नहीं होता। व्याकरण के ग्रंथों और नाटकों में ही इसका प्रयोग मिलता है। अर्ध-मागधी-शौरसेनी और मागधी प्रदेशों के बीच के कुछ भाग में दोनों भाषाओं का मिश्रित रूप मिलता है। इसको अर्ध-मागधी कहा गया है। जैनादि धार्मिक साहित्य में मुख्य रूप से इसी का प्रयोग किया गया है । इस में भी मागधी के समान अकारान्त संज्ञा के प्रथमा का एकवचन में एकारान्त रूप मिलता है। कहींकहीं र् के स्थान पर ल भी प्रयुक्त हुआ है । किन्तु मागधी के समान श् का प्रयोग न होकर स् का ही प्रयोग किया गया है। पैशाची-गुणाढ्य ने वृहत्कथा इसी भाषा में लिखी थी। यह ग्रंथ अब प्राप्त नहीं। पैशाची की मुख्य विशेषता है कि दो स्वरों के मध्य, वर्गों का तीसरा, चौथा ( सघोष स्पर्श) वर्ण, पहला और दूसरा ( अघोष स्पर्श ) वर्ण हो जाता है। जैसे गगनं=गकन, मेघो= मेखो, राजा=राचा, वारिदः=वारितो इत्यादि मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं की उत्तरकालीन अवस्था को अपभ्रंश का नाम दिया गया है । इस काल की भाषा में परिवर्तन की मात्रा और भी अधिक बढ़ गई। व्यंजन समीकरण जो इस काल से पूर्व ही प्रारम्भ हो चुका था अब चरम सीमा पर पहुँच गया था । व्यंजन समीकरण से उत्पन्न द्वित्व व्यंजन के स्थान पर एक व्यंजन की प्रवृत्ति इस काल में प्रारम्भ हो गई, यद्यपि इसका पूर्ण विकास आगे चल कर आधुनिक भारतीय आर्यभाषा काल में हुआ । इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप व्यंजनों का पूर्व स्वर दीर्घ होने लगा (यथा—सप्त=सत्त=सात, कर्म=कम्म=काम आदि)। ह्रस्व स्वर के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर ह्रस्व के प्रयोग की प्रवृत्ति प्रचुरता से दिखाई देने लगी। प्राचीन भारतीय आर्यभाषा काल के अन्दर वैदिक भाषा में और तदुपरान्त संस्कृत में कुछ सीमित अवस्थाओं में ही दन्त्य व्यंजनों के स्थान पर मूर्धन्य व्यंजनों का प्रयोग होता था। यह प्रवृत्ति अब उन नियमों के अतिरिक्त अन्य स्थानों में भी प्रचुरता से दिखाई देने लगी। (पत्=पड़, दुल==डोल, त्रुट् टुट्ट इत्यादि)। इस काल में षष्ठी विभक्ति के स्य=स्स के स्थान पर और सप्तमी के स्मिन् = स्सिं के स्थान पर ह का प्रयोग होने लगा। (यथा पुत्रस्य पुत्तस्य पुत्तह, तस्मिन् = तस्सिं तहिं आदि) । सुबन्त और तिङन्त पदों में प्रत्ययांशों के न, ण, म के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग होने लग गया (देवेन=देवेण=देवें, धरामि धरउं)। १. इंडो आर्यन एण्ड हिन्दी, पृ० २६६ ।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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