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अपभ्रंश-साहित्य
निम्नलिखित दोहे में संस्कृत के एक पद्य की छाया दिखाई देती है, जिस से कवि के संस्कृत-ज्ञाता होने का आभास मिलता है :
"सुप्पउ वल्लह मरण दिणि । जेम विरच्चै (विरज्जइ) चित्तु ।
सव्वावत्थहं तेम जइ । जिम (य) णिव्वाण पहुत्तु" ॥२४॥ निम्नलिखित संस्कृत पद्य से तुलना कीजिये
"आपत्प्रतिपन्नस्य बुद्धिर्भवति यादृशी।
तादृशी यदि पूर्व स्यात् कस्य न स्यात्फलोदयः॥" । ग्रंथ की भाषा में कहीं कहीं सुन्दर सुभाषितों का भी प्रयोग मिलता है
"जज्झरि भंडइ नीरु जिमु, आउ गलंति पि (पे) च्छि । २० टटे बर्तन में से पानी के बहने के समान आयु क्षीण होती जाती है । योगवासिष्ठ में भी इसी प्रकार का एक पद्य मिलता है--
'शनर्गलिततारुण्ये भिन्न कुम्भादिवान्भसि ।' संभव है कवि योगवासिष्ठ की वैराग्य-भावना से प्रभावित होकर इसकी रचना में प्रवृत्त हुआ हो ।
__“जीव वहंतह नरय गई, मणु मारंतह मोख्खु" ॥७४॥ अर्थात् जीववध करने वाले को नरक और मन मारने वाले को मोक्ष प्राप्त होता है।
कवि की वर्णन शैली में एक विशेषता है कि प्रायः प्रत्येक दोहे में कवि ने अपना नाम दिया है। हिन्दी में पाई जाने वाली, कहै कबीर, कह गिरिधर कविराय की उत्तर कालीन परिपाटी इस कवि में दिखाई देती है । इस काल के अन्य साधकों में यह शैली उपलब्ध नहीं होती। इस आधार पर और भाषा में प्राप्त कुछ शब्द-रूपों को दृष्टि में रखते हुए कवि का काल १३ वीं शताब्दी के लगभग प्रतीत होता है। ___ सुप्रभ की भाषा में अनेक शब्द-रूप ऐसे हैं जो हिन्दी शब्दों के पर्याप्त निकट से प्रतीत होते हैं । विभक्तियों में कर्ता और कर्म के बहुवचन में शब्द के बाद ह या हं प्रत्यय का प्रयोग मिलता है (जैसे-माणसहं = मनुष्यों को, भमंतह = घूमते हुए)। संबोधन के बहुवचन में हु प्रत्यय का प्रयोग भी सुप्रभ के दोहों की भाषा में पाया जाता है। (जैसे--जोइयहु-हे जोगियो ! ) । वैराग्य सार में पद्य प्रायः दोहा छन्द में हैं ।
१. उदाहरण के लिए
खसहु--स्खलित हो पद्य सं (१), मसाण-श्मशान (२, १०), कलि-कल (४, ८, २३), माणस--मनुष्य (९), लक्कड--लकड़ियाँ (१०), मुवउ कि आवै कोई--क्या मर कर कोई (वापस) आ जाता है (१४), दूर-दूर (१७), किंतु-किंतु (२०), अवसि-अवश्य (३७), दासतु--दासता (३८), परायउ--पराया (४७), लख्खु--लाख (५५), फुट्टहिं रोवंतुफूट फूट कर रोना (मुहावरा) (७१), जायतु जाय--जाये तो जाये (७५) इत्यादि।