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अपभ्रंश-खंडकाव्य (लौकिक) भी विरहिणी के मुख से निकलते शब्दों से दूर हो जाती है । शब्दों में विरहिणी के कोमल और सुकुमार हृदय की झांकी मिलती है। भावानुकूल शब्द-योजना का सुन्दर उदाहरण निम्नलिखित छन्द में मिलता है :
"झिज्झउ पहिय जलिहि झिज्झंतिहि, खिज्जउ खज्जोयहि खज्जंतिहि । सारस सरसु रसहिं कि सारसि,
मह चिर जिण्ण दुक्ख कि सारसि ॥" (३.१६५) हे पथिक ! शरत् में जलधारा क्षीण हो गई है, मैं भी क्षीण हो गई हूँ। चमकते खद्योतों से मैं भी खिन्न हूँ । सारस सरस शब्द करते हैं। हे सारसि ! मुझ दुःखिनी के दुःख को क्यों स्मरण कराती हो?
प्रथम दो पंक्तियों में विरहिणी के हृदय की झुंझलाहट के कारण शब्द-योजना कुछ कठोर है । किन्तु उसे ज्यों ही अपनी असहायावस्था का स्मरण हो आता है शब्द-योजना भी कठोर से सुकुमार हो जाती है। अन्तिम दो पंक्तियों में उसी असहायावस्था और विवशता का संकेत है। ___ इसी प्रकार निम्नलिखित छन्द में भी भाव के साथ ही शब्दयोजना भी बदल जाती है:
"वयण णिसुणेवि मणमत्थसर वट्टिया, मयउसर मुक्क णं हरिणि उत्तट्टिया। मुक्क दीउन्ह नीसास उससंतिया,
पढिय इय गाह णियणयणि बरसंतिया ॥" (२.८३) प्रथम दो पंक्तियों में शरविद्ध हरिणी की छटपटाहट और अन्तिम दो पंक्तियों में आँखों से बरसते आँसुओं, सिसकियों और आहों की ध्वनि है। भाषा में ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग भी मिलता है।
"काका कर करायंतु" (१.९) "रव्वडिया मा दडव्वडउ" (१.१६) "सगिग्गर गिरवयणि" (२.२९)
"तडयडिवि तडक्कई" (३.१४८) इत्यादि। कवि में शब्दों द्वारा वस्तुचित्र अंकित करने की शक्ति विद्यमान थी । उदाहरणार्थ
"एय वयण आयन्नधि सिंधुब्भव वयणि, ससिवि सासु दीहुन्हउ सलिलब्भव नयणि। . तोडि करंगुलि करुण सगग्गिर गिरपसर, जालंधरि व समीरिण मुंध थरहरिय चिर ॥ रुइवि खणद्ध फुसवि नयण पुण वज्जरिउ,
इत्यादि (२.६६) अर्थात् पथिक के मुख से यह सुनकर कि वह उसी स्थ न पर जा रहा है जहाँ उसका