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अपभ्रंश-साहित्य
कि कवि को भारतीय साहित्य का ज्ञान था । कथा का पथिक सामोरु नगर का वासी था । टीकाकारों ने सामोरु का मूलस्थान-मुलतान-कहा है । सामोरु के वर्णन से कल्पना की गई है कि कवि मुलतान का रहने वाला था और उसने गुजरात तक के प्रदेशों का भ्रमण किया था।
डा० कात्रे ने कवि का समय ११वीं और १४वीं शताब्दी के बीच माना है।' ग्रन्थ की एक हस्तलिखित प्रति की टीका वि० सं० १४६५ की लिखी हुई उपलब्ध है ।' अतएव इस समय से पूर्व कवि का होना निर्विवाद है । ग्रंय से इतना स्पष्ट है कि कवि के समय मुलतान एक समृद्ध देश था। खंभात भी एक प्रसिद्ध व्यापार का केन्द्र था । मुनि जिन विजय जी के अनुसार ग्रंथ की रचना विक्रम संवत्सर की १२वीं शताब्दो के उत्तरार्द्ध
और १३वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के बीच में हुई। श्री अगरचंद नाहटा ग्रंथ की रचना वि०सं० १४०० के आसपास मानते हैं । डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी जी को यह काव्य ग्यारहवीं शती का प्रतीत होता है। ___ संदेश रासक एक संदेश काव्य है । इसमें अन्य खंड काव्यों के समान कथानक संधियों में विभक्त नहीं है । अपितु कथा तीन भागों में विभक्त है जिन्हें प्रक्रम का नाम दिया गया है। संस्कृत में मेघदूत के पूर्व संघ और उत्तर मेघ के समान प्रत्येक प्रक्रम कथा प्रवाह की गति का सूचक है। प्रथम प्रकप प्रस्तावना रूप में है, द्वितीय प्रक्रम से वास्तविक कथा प्रारम्भ होती है और तृतीय प्रक्रम में षड्ऋतु वर्णन है।
कथानक-कवि ग्रंथ का आरम्भ मंगलाचरण से करता है। मंगलाचरण में सृष्टिकर्ता से कल्याण की प्रार्थना की गई है। आत्म-परिचय तथा पूर्वकाल के कवियों के स्मरण के अनन्तर कवि आत्म-विनय प्रदर्शित करता हुआ ग्रंथ के लिखने का औचित्य प्रदर्शित करता है । इस प्रसंग में दिये विचारों से कवि का जन-साधारण के साथ परिचय प्रतीत होता है। जैसे-रात्रि में चन्द्रमा के उदय होने पर क्या नक्षत्र प्रकाश नहीं करते ? यदि कोकिला तरुशिखर पर बैठ मधुर गान करती है तो क्या कौए कां-कां करना छोड़ देते हैं ? यदि त्रैलोक्य-यावना गंगा सागराभिमुख प्रवाहित होती है तो क्या अन्य नदियाँ बहना छोड़ दें ? यदि अनेक भाव-भंगियों से युक्त नव राग रंजित नागरिक युवती नृत्य करती है तो क्या एक ग्रामीणा ताली शब्द से ही नहीं नाचती? वस्तुतः
१. दि करनाटिक हिस्टोरिकल रिव्यू भाग ४, जन-जुलाई १९३७, संख्या १-२ ___ में डा० कात्रे का लेख २. संदेश रासक भूमिका पृ० ७ ३. वही पृ० १२-१३ ४. राजस्थान भारती भाग ३, अंक १, पृ० ४८. ५. हिन्दी साहित्य डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रकाशक, अतरचन्द कपूर एंड संस,
सन् १९५२, पृ० ७१.