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________________ अपभ्रंश-खंडकाव्य (धार्मिक) २३५ कवि ने ग्रंथ-रचना चंदवाड नगर के सजा सारंग के मन्त्री यादव वंशोत्पन्न बासदर (धासाधर) की प्रेरणा से की थी। कृति समर्पित भी उसी को की गई है। कृत्ति की पुष्पिकाओं में वासद्धर का नाम मिलता है। संधियों के आरम्भ में और ग्रंथ समास्ति पर कवि ने आश्रयदाता वासाधर की स्तुति में संस्कृत पद्य भी दिये हैं। कवि ने ग्रंथ-रचना, वैशाख शुक्ल त्रयोदशी-सोमवार स्वाति नक्षत्र में वि० सं० १४५४ में की। कृति में कवि ने अपने से पूर्वकाल के अनेक दर्शन, व्याकरणादि के विद्वानों का और कवियों का उल्लेख किया है । विद्वानों और कवियों के नामोल्लेख के साथ-साथ उनमें १. इय सिरि वाहुवलिदेव चरिए, सुहडदेव तणय वुह घणवाल विरइए, महाभव्य वासद्धर गामंकिए. . . . इत्यादि २. सम्मत्त जुत्तो जिण पाय भत्तो, दयाणुरत्तो वहु लोय मित्तो। मिछत्त चत्तो सुविसुद्ध चित्तो, वासाधरो गंदउ पुण्ण चित्तो॥ ३.१ श्री लंव कंच कुल पद्म विकास भानुः सोमात्मजो दुरितदारुचयकृशानुः। धम्मकसाधनपरो भुवि भव्य बंधु । साधरो विजयते गुणरत्नसिंधुः ॥ ४.१ आद्याक्षरं श्री वसु पूज्य सूनोः साधो द्वितीयं धनदात्तृतीयं । रवेश्चतुर्थ विधिना गृहीत्वा वासाचाराच्या विहिता विभूतिः॥ यावत्सागरमेखला वसुमती यावत्सुवर्णाचलः । स्वारी कुच संकुलः खममितं यावच्च तत्वांचितं । सूर्याचन्द्रमसौ च यावदभितो लोकप्रकाशोयतो । तावनंदतु पुत्रपौत्रसहितो वासाधरः शुद्धधीः।। अन्तिम प्रशस्ति ३. "विक्कमणरिदं अंकिय समए, चउदहसय संवच्छरहं गए। पंचास वरिस चउअहिय गणि, वइसाहहो सियतेरसिसुदिणि। साई गक्खत्ते परिठ्यिइं, वर सिद्धि जोग णामें वियई। ससिवासरे रासि मयंकतुले, गोलग्गेमुत्ति सुक्के सवले। चउ वग्ग सहिउ गवरस भरिउ, बाहु बलिदेव सिद्धउ चरिउ।" अन्तिम प्रशस्ति
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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