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________________ २३१ अपभ्रंश-खंडकाव्य (धार्मिक) किया है। शवर स्त्रियाँ प्रसन्नचित्त से बेर के फलों को मोती समझ कर बीन रही हैं। उलूक कौए को हंस के बच्चे की भ्रान्ति से विदीर्ण नहीं करता । ज्योत्स्ना जल से समग्र विश्व प्रक्षालित हो गया। गृह में गवाक्षजाल से आती हुई काम-बांधव चन्द्र किरणों को मयूर श्वेत सर्प समझ तत्क्षण दौड़ कर गवाक्ष में मुह डालता है । बिल्ली दूध की भ्रान्ति से चन्द्र कर चाटती फिरती है इत्यादि । देखिये पं सरिण सपउरिस सिरि मुणेवि, कउ एय छत्तु इह जगु जिणे वि। मत्ताहल भंतिए समरियणु, वीणइं वोरी हल हवियमणु। सिसु पट्ठल भतिए लंपडऊ, काकहो ण वियारइ घूयडऊ । जोव्हा जलेण जगु खालियउ, सीययरहिं सुहियणु लालियउ। कि अंबराउ णिन्भर घणइं, विहडंति सुहाहिल कंकणई। कि सिरि चंदण रस सीयरई, गयणाउ लुलिर ससहर करइं। मयरद्धय बंधव चंद करा, गेहाण गवक्खए विसि विवरा। मण्णेवि पंडुरु फणि वण फणिणा, घल्लिउ मुहुं धाइवि तकखणिणा। पेछिवि गोरस भंतिए वहइ, विसदसउ णिय जोहए लिहए। परिगिण्हई वावड मुद्धडिया, मुत्ताहल हारहो लंपडिया। घत्ता इय कइरव गंदिणि चंदिणिए, णिय वहूइ सुविसिट्ठउ, कइ वय परियण सुहियण सहिउँ, बरु वास हरे पइट्ठउ ॥' २.१६ काव्य में वर्ण वृत्त और मात्रिक दोनों प्रकार के अनेक छंदों का प्रयोग कवि ने किया है। कवि ने ग्रंथ की चार संधियों में ही निम्नलिखित छंदों का प्रयोग किया है विलासिणी, मदनावतार, चित्तंगया, मोत्तियादाम, पिंगल, विचित्तमणोहरा, आरणाल, वस्तु, खंडय, जंभेट्टिया, भुजंगप्पयाउ, सोमराजी, सग्गिणी, पमाणिया पोमणी, चच्चर, पंचचामर, गराच, तिभंगिणिया, रमणीलता, समाणिया चित्तिया, भमरपय, मोणय, अमरपुर सुन्दरी, लहुमत्तिय सिगिणी, ललिता इत्यादि । १. समरियणु-शबर स्त्रियाँ। वोरी हलु-बद्रीफल, बेर। हवियमणु-प्रसन्न चित्त से। सिसु पटुल-हंस बालक । वियारइ-विदीर्ण करता है। घूयडऊ -उलूक । सीय यहि-शीत किरणों से । सुहाहिलकं कणइं—अमृत जल कण । सिरि चंदन-उत्तम चन्दन । वण फणिणा--मयूर। विस दंसउविडाल। वावड--व्याकुल हुई। णिय वहूइ-अपनी वधू के साथ ।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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