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अपभ्रंश-साहित्य . गंध्यलच्चिय तिमिर-हर, जगे पहु ससि-रवि-संख। सवण जे अंदोलय ललिय, विहल महुहु आकंख ॥ जणु सुहावहिं मुहह निसास किं मलयानिल भरेण, वंत किरण धवल किर्हि चंदेण। अहरो विहु रंजवइ जगु विकइण कि अंगरागेण । रसण पउच्चिय मिउफरि, सूनपा-मयण सयणेज्ज । महमणि-किरणच्चिय कुहि, कुसुम वयारह कज्जु ॥ तरल-नयहि कुडिल-केसेहि थण-जुयलेण, पुणु कठिण
तुज्म रूव मन्म पएसेण । अच्चंत वाउलिय देवपूय गुरु विणय हरिसेण । इय सा सयलुवि जगु जिणइ, निय-गुण-दोस-सएण ॥
. (वही सन्धि ७) वह नारी अपने किरण मालाचित शरीर से रात्रि में मंगलमय प्रदीप शिखा के समान प्रतीत होती थी। कर्ण-कुण्डल आन्दोलित होने पर हृदय को आन्दोलित कर देते थे। उसके सुखद मुख निःश्वास से मलयानिल, दंत-किरणों की धवलिमा से चन्द्र, अधरों के राग से अंगराग व्यर्थ प्रतीत होते थे।
निम्नलिखित नारी-विलाप वर्णन में स्वाभाविकता है। शोकावेग नारी हृदय तक ही सीमित नहीं रहता, उससे धरणी और गगन का अन्तराल भी भर गया है। पद-योजना भी भावानुकूल ही हुई है। देखियेहरिण-णयणिय चंपयच्छाय ससि सोम वयणंबुरुह,
कुंद-कलिय-सम-दंत-पंतिया। परिदेवियरव-भरिय धरणि गयण अन्तरमय विय ॥ कुहिँ सिरु कर-मुग्गरिहि, पीडहिँ उरु वादाहिँ । ताडहिँ वच्छोरुह वियउ, निय-करसाहाहिँ ॥ रुयहि गायहिँ ललहिं मुच्छहिं सिक्कारहिं पुक्कारहिं,
सहिहि गहियउ उरे हार तोडहि। उल्लूरहिं चिहुर-भर कणय-रयण-वलयालि मोडहि ॥ सरवि सरवि निय-पियय महु, गुण गुण तहिं विलवंति । जह स विहट्ठिय तर विहय, नियरु वि रोयावंति ॥
(वही संधि ६) जिणदत्त चरित जिणदत्त चरिउ अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ। इसकी हस्तलिखित प्रति आमेर रद भण्डार में है (प्र० सं० पृष्ठ १०१-१०४) ।