SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश-साहित्य अपभ्रष्टं तृतीयं च तदनन्तं नराधिप । देशभाषा विशेषेण तस्यान्तो नेह विद्यते ॥' विष्णु ३. ३. नाट्य-दर्पण में अपभ्रश को देशभाषा कहा गया है । अमरचन्द्र षड् भाषाओं में अपभ्रंश की भी गणना करते हैं संस्कृतं प्राकृतं चैव शोरसेनी च मागधी । पैशाचिकी चापभ्रशं षड् भाषाः परिकीतिताः॥ काव्यकल्पलतावृत्ति पृ० ८. अपभ्रंश शब्द का प्रयोग यद्यपि महाभाष्य से भी कुछ शताब्दी पूर्व मिलता है तथापि अपभ्रंश शब्द का व्यवहार भाषा के रूप में कब से प्रयुक्त होने लगा, निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। भाषा-शास्त्र के विद्वानों ने अपभ्रश-साहित्य का प्रारम्भ ५.०० या ६०० ई० से माना है । किन्तु अपभ्रंश भाषा के जो लक्षण वैयाकरणों ने निर्दिष्ट किये हैं उनके कुछ उदाहरण हमें अशोक के शिलालेखों में मिलते हैं। उदाहरण के लिए संयुक्त र और उकारान्त पदों का प्रयोग । इसी प्रकार धम्मपद में भी अनेक शब्दों में अपभ्रंश-रूप दिखाई देते हैं । ललित विस्तर और महायान संप्रदाय के अन्य बौद्ध ग्रंथों की गाथा संस्कृत में भी अपभ्रंश रूप दृष्टिगोचर होते हैं । प्रसिद्ध ऐतिहासिक तारानाथ ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि बौद्धों के सम्मितीय समुदाय के त्रिपिटक के संस्करण पाली, संस्कृत और प्राकृत के अतिरिक्त अपभ्रश में भी लिखे गये। अपभ्रंश विषयक इन भिन्न-भिन्न निर्देशों से निम्नलिखित परिणाम निकलते (क) प्रारम्भ में अपभ्रश का अर्थ था, शिष्टेतर या शब्द का बिगड़ा हुआ रूप और यह शब्द अपाणिनीय रूप के लिए प्रयुक्त होता था। (ख) भरत के समय में विभ्रष्ट शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त होने लगा था। उस काल में अपभ्रंश बीज रूप से वर्तमान थी और इसका प्रयोग शबर, आभीर आदि वनवासियों के द्वारा किया जाता था। साहित्यिक भाषा के रूप में अपभ्रंश का प्रयोग अभी तक आरम्भ नहीं हुआ था। (ग) छठी शताब्दी में अपभ्रंश शब्द वैयाकरणों और आलंकारिकों के ग्रंथों में भी प्रयुक्त होने लग गया था और यह शब्द साहित्य की भाषा का सूचक भी बन गया था। उस समय तक अपभ्रंश का स्वतन्त्र साहित्य विकसित हो गया था और भामह तथा दंडी जैसे आलंकारिकों की स्वीकृति प्राप्त कर चुका था । इतना होने पर भी अपभ्रश का आभीरों के साथ सम्बन्ध अभी तक बना हुआ था। (घ) नवीं शताब्दी में अपभ्रंश का आभीर, शबर आदि की ही भाषा माना १. अपभ्रंश काव्यत्रयी, भूमिका पृ० ६६ । २. नाट्य दर्पण, भाग १, गायकवाड़ सिरीज़, संख्या ४८, १९२६ ई०, भाग १, पृ. २०६।
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy