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अपभ्रंश - खंडकाव्य (धार्मिक)
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नट्टल की मंगलकामना के साथ की गई है । अंत में संस्कृत छंदों में नट्टल के गुणों का वर्णन, उसकी मंगल कामना और उसका परिचय दिया गया है ।
कवि ने पासणाह चरिउ की रचना दिल्ली में आग्रहायण मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी, रविवार, वि० सं० १९८९ में की । '
इस ग्रन्थ में बारह सन्धियों में पार्श्वनाथ के चरित्र का वर्णन है । पार्श्वनाथ की कथा वही है जो अन्य ग्रन्थों में मिलती है ।
कवि के वर्णनों में परंपरागत प्राचीन शैली के दर्शन होते हैं । कवि यमुना नदी का वर्णन करता हुआ, प्रियतम के पास जाती हुई एक वार विलासिनी से उसकी तुलना करता है-
जउणा सरि सुरणय हिययहार, णं वार विलासिणिए उरहार । डिंडीर पिंड उप्परिय णिल्ल, कीलिर रहंग थोव्वड थणिण्ण । सेवाल जाल रोमावलिल्ल, वुहयण मण परि रंजणच्छइल्ल ।
भमरावलि वेणी वलयलच्छ, पप्फुल्ल पोमदल दीहरच्छि । पवणा हय सलिलावत्त णाहि, विणिहय जणवय तणु ताव वाहि । वणमयगल मयजल घसिणलित्त, दर फुडिय सिप्पिउड दसणदित्त । वियसंत सरोरुह पवर वत्त, रयणायर पवर पियारत्त । विउला मल पुलिण णियंव जाम, उत्तिण्णी णयर्णाहं दिट्ठताम | हरियाणए दे असंख गामे, गमियिण जणिय अगवरय कामे ।
घत्ता
पर चक्क विहट्टणु, सिरि संघट्टणु, जो सुर वइंणा परिगणिउं । रिउ रुहिरावट्टणु, पविउलु पट्टणु, ढिल्ली णामेण जिर्भागडं ।
१.२
अर्थात् यमुना नदी सुर नर का हृदय हार थी मानो वारविलासिनी का उरहार हो । नदी का फेन पुंज मानो उस नारी का उपरितन वस्त्र हो । क्रीड़ा करते हुए चक्रवाक मानो उसके स्तन हों । शैवाल जाल, बुधजनों के मन का अनुरंजन करने वाली रोमावली, भ्रमरावली वलयाकार शोभित वेणी, प्रफुल्ल पद्म दल विशाल नेत्र, पवन प्रकम्पित जलं की भंवर तनु ताप नाशक नाभि, वन्य हाथियों को मद से युक्त जल चन्दन लेप, ईषत् व्यक्त होते हुए शुक्ति पुट दाँत और विकसित कमल सुन्दर मुख के समान था । नदी रत्नाकर समुद्र रूपी प्रिय के प्रति अनुरक्त थी और नारी रत्नालंकृत अपने प्रिय के प्रति । उसके विपुल और निर्मल पुलिन मानो नितंब थे । इस प्रकार
१. “ विक्कमर्णारंद सुपसिद्ध कालि, ढिल्ली पट्टणि धणकण विसालि । सणवासी एयारह सहि, परिवाडिए वरिसहं कसमीहि आगहण मासि, रविवारि समाणिउं
परिगएहिं । सिसिर भासि । "
१२. १८