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________________ १७६ अपभ्रंश - साहित्य ग्रन्थ का आरम्भ करते हुए कृतिकार ने मंगलाचरण के अनन्तर चार गाथाओं द्वारा सरस्वती वन्दना की है छद्दंसण छच्चरण छंदालंकार फुरिय पक्खउडा । णवरस कुसुमासत्ता, भिंगिव्व गिरा जए जयउ ॥ १ ॥ थपथ्या विलसिय सविलास पया वाएसी परमहंस तल्लीणा । मुणिगण हर पमुह मुहारविंद ठिय जयउहं सिव्व ॥ २ ॥ पूर्वपथ्या केवल णाण सरोवर समुज्झ वाअरुह दिणयरुल्लसिया । जयउ भिसिणिव्व वाणी छद्दंसण छप्पयावरिया ॥३॥ परपथ्या दीहर समास कर पसर छित्तक्क वायरण वारण विसेसा । करिणित्व काल काणण कयत्थ कोला गिरा जयउ ॥४॥ विपुलाणाम गाथा १.१ कृतिकार आत्म-विनय प्रकट करता है और कहता है 'अलंकार सल्लक्खणं देसि छंद, - ण लक्खमि सत्यांतरं अत्थमंदं ।' इस प्रसंग में कृतिकार अपने ग्रन्थको शृङ्गार, वीर रसादि से भिन्न धारा में रचने का कारण बतलाता हुआ कहता है. ―― कि करिमि किं पि सिंगार गंथ, णं णं तं जीवहो णरय पंथु । कि वीरु वीर जण जणिय राउ, णं णं सो बहु हिंसा सहाउ । ff करमक पि कायमुय मणोज्जु, णं णं णिष्णासिय धम्मकज्जु । १. १२ ग्रन्थ मे स्थान-स्थान पर लेखक ने “उक्तं च" लिखकर संस्कृत ग्रन्थों के अनेक उद्धरण दिये हैं । १५ वीं सन्धि में तो संस्कृत शैली के साथ-साथ ग्रन्थकार ने संस्कृत १ दिवसस्याष्टमे भागे मंदीभूते दिवाकरे । नक्तं तद् विजानीया न्न नक्तं निशिभोजनम् ॥ यथाहि सिद्धि माकाशं तिमिरोपप्लुतो नरः । संकीर्ण मिव मात्राभि श्चित्राभि रभि मन्यते ॥ तथेद ममलं ब्रह्म निर्विकल्पमविद्यया । कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रशस्यते ॥ ३३.६ बुद्धिर्यस्य बलं तस्य, निर्बुद्धे हि कुतो बलम् वने सिंह मदोन्मत्तः, शशकेन निपातितः ॥ ४८.१० ?
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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