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अपभ्रंश - साहित्य
ग्रन्थ का आरम्भ करते हुए कृतिकार ने मंगलाचरण के अनन्तर चार गाथाओं द्वारा सरस्वती वन्दना की है
छद्दंसण छच्चरण छंदालंकार फुरिय पक्खउडा । णवरस कुसुमासत्ता, भिंगिव्व गिरा जए जयउ ॥ १ ॥
थपथ्या
विलसिय सविलास पया वाएसी परमहंस तल्लीणा । मुणिगण हर पमुह मुहारविंद ठिय जयउहं सिव्व ॥ २ ॥ पूर्वपथ्या केवल णाण सरोवर समुज्झ वाअरुह दिणयरुल्लसिया । जयउ भिसिणिव्व वाणी छद्दंसण छप्पयावरिया ॥३॥
परपथ्या दीहर समास कर पसर छित्तक्क वायरण वारण विसेसा । करिणित्व काल काणण कयत्थ कोला गिरा जयउ ॥४॥ विपुलाणाम गाथा १.१
कृतिकार आत्म-विनय प्रकट करता है और कहता है 'अलंकार सल्लक्खणं देसि छंद,
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ण लक्खमि सत्यांतरं अत्थमंदं ।'
इस प्रसंग में कृतिकार अपने ग्रन्थको शृङ्गार, वीर रसादि से भिन्न धारा में रचने का कारण बतलाता हुआ कहता है.
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कि करिमि किं पि सिंगार गंथ, णं णं तं जीवहो णरय पंथु । कि वीरु वीर जण जणिय राउ, णं णं सो बहु हिंसा सहाउ । ff करमक पि कायमुय मणोज्जु, णं णं णिष्णासिय धम्मकज्जु ।
१. १२
ग्रन्थ मे स्थान-स्थान पर लेखक ने “उक्तं च" लिखकर संस्कृत ग्रन्थों के अनेक उद्धरण दिये हैं । १५ वीं सन्धि में तो संस्कृत शैली के साथ-साथ ग्रन्थकार ने संस्कृत
१ दिवसस्याष्टमे भागे मंदीभूते दिवाकरे । नक्तं तद् विजानीया न्न नक्तं निशिभोजनम् ॥ यथाहि सिद्धि माकाशं तिमिरोपप्लुतो नरः । संकीर्ण मिव मात्राभि श्चित्राभि रभि मन्यते ॥ तथेद ममलं ब्रह्म निर्विकल्पमविद्यया । कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रशस्यते ॥ ३३.६ बुद्धिर्यस्य बलं तस्य, निर्बुद्धे हि कुतो बलम् वने सिंह मदोन्मत्तः, शशकेन निपातितः ॥ ४८.१०
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