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अपभ्रंग - साहित्य
में की। उस समय अवन्ती देश की धारा नगरी में भोजदेव शासन करते थे । प्रत्येक
संधि की पुष्पिका में कवि ने अपने गुरु का नाम लिया है । २
ग्रंथ का आरम्भ निम्नलिखित शब्दों से होता है
नमो वीत रागाय ।
ॐ नमः सिद्धेभ्यः । ॐ नमो अरहंताणं । णमो सिद्धाणं । णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं । णमो लोए सव्व साहूणं । इह पंच णमोकारई लहेवि गोविउ हुवउ सुदंसणु ।
गउ मोक्खहो अक्खमि तहो चरिउ वर चउवग्ग पयासणु । १. १. अर्थात् अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु जनों के नमस्कार --पंच नमस्कार - के फलस्वरूप एक गोप सुदर्शन नाम से जन्म लेकर किस प्रकार मोक्ष को प्राप्त हुआ उसी के चतुर्वर्ग - प्रकाशक चरित्र को कहता हूँ ।
इसके पश्चात् मंगलाचरण किया गया है । तदनन्तर एक दिन कवि मन में सोचता है कि सुकवित्व, त्याग और पौरुष से संसार में यश फैलता है । सुकवित्व में मैं अकुशल हूँ, त्याग में क्या करूँ ? धन हीन हूँ और सुभटत्व भी तपस्वी को निषिद्ध है । ऐसा होते हुए भी मैं यश का लोभी हूँ । अस्तु, में निज शक्ति के अनुसार ऐसा काव्य रचता हूँ जो पद्धडिया-बंध में अपूर्व हो । मेरा काव्य जिन-स्तवन कारण से सुकवित्व युक्त हो प्रकाशित होगा । क्या नलिनी पत्र संयुक्त जलबिन्दु मोती के समान सुन्दर और पवित्र हो नहीं शोभित होते ? ३
१. आराम गाम पुरवर णिवेसे, सुपसिद्ध अवंती णाम देसे । तह अस्थि धार णयरी गरिट्ठ । तिहुयण नारायण सिरि णिकेउ, तहिं णरवर पुंगमु
भोयदेउ ।
णिव विक्कम कालहो ववगएसु एयारह तह केवल चरिउ अमच्छरेण णयणंदें
संवच्छर
विरइउ
छुडु करिs जिणसंभरण चित्ते, ता जल बिंदुड णलिणी पत्त जुत्तु, कि
सएसु ।
वित्थरेण ।
१२. १०
२. इत्थ सुदंसण चरिए पंचणमोक्कार फल पयासयरे माणिक्कणंदि तइविज्ज सीस यदिणा रइए. • इत्यादि ।
३. घत्ता-
विप्पs |
अह एक्कहि दिणे वियसिय वयण, मणे णयणानंदि सुकवित्तं चाएं पोरिसेण जसु, भुवणम्मि विढप्पइ ॥ १.१ सुकवित्तं ता हउ अप्पवीण, चाउ वि करेमि किं दविण हीणु । सुहत्तु तवहु दूरें णिसिद्ध, एवंविहों वि हऊं जस विलुद्ध | णिय सत्तिए तं विरएमि कव्वु, पद्धडिया बंधे जं अडवु ।
सयं जि पयट्टइ मइ कवित्ते । हइ ण मुत्ताहलु पवित्तु ।
१.२