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अपभ्रंश-खंडकाव्य (धार्मिक) को लंघइ महियलि कम्मवसु, अण्णोण्णाहार मरंति पसु। बहु थावर जंगम जीवउलु, गर तिरिय गिलंति णिच्चु सयलु।
(२.३७.२-७) उपयुक्त शब्द योजना द्वारा कवि ने नकुल के मरण का सजीव चित्र उपस्थित कर दिया है । अनुप्रासमयी भाषा से उसका वेग नष्ट नहीं हो सकता। भिन्न-भिन्न क्रियाओं के अनुकूल शब्दों का प्रयोग कवि ने सफलता से किया है। शरीर की ग्रंथियों का तड़ से टूटना, हड्डियों का कड़-कड़ कर मुड़ना, चमड़े का चर्र से अलग हो जाना, खून का घट-घट पी जाना, कितने उपयुक्त शब्द हैं।
भाषा को बलवती बनाने के लिए कवि कभी-कभी द्विरुक्त शब्दों का प्रयोग करता है। मानव शरीर का सुन्दर चित्र निम्न शब्दों में अंकित किया गया है-- माणुससरीरु दुहपोट्टलउ, धोयउ धोयउ अइ विठ्ठलउ । वासिउ वासिउण उ सुरहि मलु, पोसिउ पोसिउ उ धरइ बलु। तोसिउ तोसिउ णउ अप्पणउ, मोसिउ मोसिउ घर भायणउ। भूसिउ भूसिउ ण सुहावणउ, मंडिउ मंडिउ भीसावणउं। वोल्लिउ वोल्लिउ दुक्खावणलं, चच्चिउ चच्चिउ चिलिसावणउं। मंतिउ मंतिउ मरणहो तसइ, दिक्खिउ दिक्खिड साहुहुं भसइ। सिक्खिउ सिक्खिउ विणगुणि रमइ, दुक्खिउ दुक्खिउ वि ण उवसमइ। वारिउ वारिउ वि पाउ करइ, पेरिउ पेरिउ वि ण पम्मि चरइ । चम्में बद्ध वि कालिं सडइ, रक्खिउ रक्खिउ जममुहि पडइ।'
(२. ११. १-१२) भाषा मुहावरेदार है। छोटे-छोटे प्रभावोत्पादक वाक्यों का भी स्थल-स्थल पर प्रयोग मिलता है
विसभोयणेण कि गर जियंति गोसिंगई कि दुद्घई सर्वति । षणाई सिलायलि किं हवंति। णोरस भोज्जिं कहिं कायकंति। उवसम विहीणि कहिं होइ खंति परु मारंतहं कहि होइ संति ।
(१. ११. १-३) मच्छं गइ दिज्जइ सलिलु पवणु उवसंतहो किज्जइ धम्म सवणु। कि सुक्कै रुक्खें सिंचिएण अविणीयं किं संबोहिएण।
(१. २०० १-२) सरल और प्रभावमयी भाषा का रूप निम्नलिखित उद्धरण में देखा जा सकता है--
१. विठ्ठलउ-अपवित्र। सुहावणउ--सुख प्रापक, सुखदायक । वोल्लिउ
गोला किया हुआ, आर्चीकृत। चिलिसावणउं-घृणित । तसइ-डरता है। सडइ-सड़ जाता है, नष्ट हो जाता है।