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अपभ्रंश-खंडकाव्य (धार्मिक)
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की । क्षण भंगुरता और संसार की असारता के द्वारा कवि ने निर्वेद भाव की तीव्र व्यंजना अवश्य की है।
इसके अतिरिक्त कापालिक कुलाचार्य का वर्णन (१.६ - ७ ), चंडमारी - काली का (१.९), श्मशान का (१.१३) विवाह का (१.२६ - २७), कानन का ( २.२७) और मुनिका ( ३.१७), वर्णन भी कवि ने सुन्दरता से किया है ।
प्रकृति वर्णन - सूर्योदय का वर्णन कवि ने निम्न शब्दों में किया है
इय महु चिततहो अरुणयरु, उग्गमिउ दुर्याणि जणु रंजियउ, अरुणायवत्तु णं णह सिरिहि, लोहिय लुद्धे जगु फाडियउ, कुंकुम पिंडु व दिसिकामिणिह,
णव पल्लव णं कंकेल्लितरु । सिंदूर पुंज णं पुंजियउ । णं चूडारयणु उदयगिरिहि ।
णं काल चक्कु
भमाडियउ । पोमिणिहि ।'
रतुप्पल संज्ञा
२. १२.३-७
"लोहिय लुद्धे जगु फाडियउ" में यद्यपि कुछ जुगुप्सा का भाव है किन्तु वर्णन में
नवीनता है ।
सन्ध्या वर्णन करता हुआ कवि कहता हैअत्यासि रत्तउ मित्तु जहाँ, रण वीस विसरु वि कि तवइ, रवि उग्गु अहोगइणं गयउ, तहि संज्ञा वेल्लि व णीसरिय तारावलि कुसुमह परियरिय णं रत्तगोवि छाइय हरिणा णं चक्कु तमोह विहंडणउ णं कित्तिए दाविउ निययम हु णं जसु पुंजिउ परमेसरहो णं रयणीबहुहि णिलाड तिलउ घसा-- णहयल खले उकव
ससि लग्गउ अच्छइ मउतेण ससि घड गलिएं जोण्हाखीरि दोसइ धवलं रुपय रइयं
दिसिगारि वि रज्जइ बप्प तहि । बहु पहरिहि णिहणु जि संभवइ । णं रत्तउ कंदउ णिक्खियउ । जग मंडवि सा णिरु वित्थरिय | संपुण्ण चंद फल भरणविय । सा खद्धी बहल तिमिर करिणा । णं सुरकरि सिय मुह मंडणउं । णं अमय भवणु जण दिण्ण सुहु । णं पंडुर छत्तु सुरेसरहो । उग्गउ ससि णं सइरणि विलउ । बारह रासिउ पेच्छइ । ण अत्यें गच्छइ ॥ भुवणं हायं पिव गंभीर । णं तुसारहारावलि छइयं । २
ज० च० पृष्ठ २५.
१. कंकेल्लितरु -- अशोक वृक्ष । अरुणायवत्तु --- अरुणातपत्र ।
२. सूर -- शूर या सूर्य । पहरिहि--पहर या प्रहार । अहोगइणं-- अधोगगन । हरिणा - कृष्ण, सिंह । खद्धी - खाई । दाविउ--दिखाया । सइरिणि विलउ - - स्वैरिणी विलय ।