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________________ अपभ्रंश-खंडकाव्य (धार्मिक) १३९ क्षुल्लक ही रहने का आदेश दिया। इन शब्दों के साथ अभयरचि ने कथा समाप्त करते हुए कहा कि हम इस प्रकार भिक्षा के लिए नगर में भ्रमण कर रहे थे जब कि राज कर्मचारियों ने हमें पकड़ कर मंदिर में ला खड़ा किया। ___ अन्त में राजा मारिदत्त और भैरवानन्द की पूर्व जन्म की कथा बताते हुए उन्हें भी जैन धर्म में दीक्षित किया गया । कालान्तर में अभयरुचि और अभयमति भी भिक्षु और भिक्षुणी हो पावन जीवन व्यतीत करते हुए देवत्व को प्राप्त हुए। इस ग्रंथ में न तो काव्यत्व की प्रचुरता है और न घटना की विभिन्नता दृष्टिगोचर होती है। कवि ने जसहर और उसकी माता चन्द्रमति के अनेक जन्मों की कथा के वर्णन द्वारा जैन धर्म का महत्व प्रतिपादित किया है । कवि ने अपनी धार्मिक भावना को काव्यत्व से मढ़कर जनता के सामने रखने का प्रयत्न किया है । धार्मिक भावना की प्रचुरता के कारण कहीं कहीं कथा में अलौकिक तत्त्वों का समावेश हो गया है । इसी कारण कथा में सरसता नहीं आ सकी। जसहर और उसकी माता चन्द्रमति ने भिन्न-भिन्न जन्मों में भिन्न-भिन्न पशु पक्षियों की योनि में जन्म लिया। इस प्रकार प्रकृति जगत् के पशु पक्षियों के प्रति भी मानव हृदय में सहानुभूति उत्पन्न करने का प्रयत्न ग्रंथ में किया गया है । जसहर और उसकी माता का इन भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेने का कारण यह था कि जसहर की माता ने पश की बलि देने का प्रस्ताव किया था और जसहर ने वास्तविक प्राणी के स्थान पर आटे के बने मुर्गे की बलि देने का विचार प्रकट किया। इसके फलस्वरूप दोनों को अनेक जन्मों तक पशु और पक्षी की योनि में भटकना पड़ा । एवं इस कथा द्वारा मानव हृदय में अहिंसा की भावना का प्रचार कवि को अभीष्ट प्रतीत होता है। प्रबन्ध कल्पना क्योंकि एक सीमित दृष्टिकोण से की गई है अतएव पात्रों के चरित्र का चित्रण भी भली-भाँति नहीं हो सका। वस्तु वर्णन---यद्यपि ग्रंथ में न तो कथा का पूर्ण रूप से विकास हो सका है। और न रस का पूर्ण रूप से परिपाक तथापि अनेक स्थल काव्य की दृष्टि से रोचक हैं। यौधेय देश का वर्णन करता हुआ कवि कहता हैनोहेयउ णामि अत्थि देसु णं धरणिए धरियउ दिव्ववेसु। जहिं चलइं जलाई सविन्भमाइं णं कामिणिकुलइं सविन्भमाइं। कुसुमिय फलियइंजहि उववणाइं गं महि कामिणिणव जोवणाई। मेयर रोमयण चलिय गंड जहिं सुहि णिसण्ण गोमहिसि संड। जहिं उच्छवणइं रस वंसिराइं णं पवण वसेण पच्चिराइं। नहि कगभर पणविय पिक्क सालि जहि दीसइ सयदलु सदलु सालि। जहिं कणिसु कीर रिछोलि चुणइ गह वइ सुयाहि पडिवयणु भणइ। जहिं दिण्णु कण्णु वणि मयउलेण गोवाल गेय रंजिय मणेण ।' १.३.१-१४ १. सुहि-सुख से। रस दंसिराइं--रस से सुन्दर। पणविय--प्रणमित, झुके
SR No.006235
Book TitleApbhramsa Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarivansh Kochad
PublisherBhartiya Sahitya Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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