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अपभ्रंश - खंडकाव्य (धार्मिक)
१३५.
सुन्दर वर्णन कवि ने किया है । कोई स्त्री घबराई हुई घर में आये जा माता के पैरों में पड़ती है, जल के स्थान पर घी से उसके पर धोती है । कोई अपने बच्चे की चिन्ता में बिल्ली के बच्चे को ही लेकर चल पड़ती है । कोई पानी को मथ रही है, कोई बिना सूत्र के ही माला गुंथती है । इत्यादि
कावि कंत झूरवह दुचित्ती कावि अणंग पलोपणे रत्ती । पोएं पडइ मूढ जामायहो धोयइ पाय घरं घरु आयहो । धिवs तेल्लु पाणिउ मग्गेष्पिण कुठु पेइ छुड्डु दारु भणेष्पिणु । अ अण्ण मण डिंभु चितेप्पिणु गय मज्जायर पिल्लउ लेप्पिण | धूवइ खीरु कावि जल मंथद कावि असुत्तउ मालउ गुंथइ । ढोयइ सुहयहो सुहई जणेरी भासइ हउं पिय दासि तुहारी ।
(५.९) प्रकृति वर्णन - प्रकृति वर्णन में कोई नवीनता नहीं दिखाई देती । निम्नलिखित उद्धरण में बाण की शैली के अनुरूप कवि ने वट वृक्ष की सत्पुरुष से समानता दिखाई है । यहाँ शब्दगत साम्य के अतिरिक्त अन्य कोई साम्य नहीं। नवीनचित्रोत्पादिनी कल्पना का अभाव है |
सम्पुरिसु व यिर मूलाहिठाण सप्पुरिसु व अकुसुमफल णिहाणु । सप्पुरिसु व कइ सेविज्जमाणु सप्पुरिसु व दिय वर दिण्ण दाणु ॥ सप्पुरिसु व परसंतावहारि सप्पुरिसु व पत्तद्धरण कारि । सप्पुरिसु व तहिं वड विडवि अत्थि जहं करइ गंड कंडुयण हत्थि ।
( ८.९.१ - ४ ) भाषा -- भाषा में सौंदर्य लाने के लिए कवि ने स्थल स्थल पर उपमा, श्लेषादि अलंकारों का प्रयोग किया है । अलंकारों में कवि ने परम्परागत उपमानों का ही प्रयोग न कर नवीन उपमानों का भी प्रयोग किया जिससे कवि की निरीक्षणशक्ति और अनुभव का आभास मिलता है । राजगृह का वर्णन करता हुआ कवि कहता हैतहि पुरवरु णामें रायगिहु कणय रयण कोडिहि बलि वंड धरंतही सुरवइहिं णं सुरणयरु गयण
है
घडिउ |
पडिउ ॥
१.६
अर्थात् उस देश में राज गृह नाम का कोटि कनक- रत्नों से घटित सुन्दर नगर था ।
मानो सुरनगर सुरपति के प्रयत्नपूर्वक रोके जाने हो । सुन्दर कल्पना है । अपभ्रंश कवियों को यह पर इसका प्रयोग दिखाई देता है ।
पर भी हठात् आकाश से गिर पड़ा कल्पना अतीव प्रिय थी । अनेक स्थलों
कवि की अनेक उपमायें नितान्त नवीन और इष अति प्रिय थे । कुछ अलंकारों के उदाहरण नीचे
उपमा
तडियइं दूसइं बहु मुंडवियउ मुंडियाउ दासी जिह थक्यिउ
मौलिक हैं । कवि को यमक और दिये जाते हैं
७.१.१५