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अपभ्रंश महाकाव्य
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और २६७ कड़वकों में यशःकीर्ति ने महाभारत की जैन धर्मानुकूल कथा का सीधा वर्णन किया है । ग्रंथ का आरम्भ निम्नलिखित अलंकृत पद्य से होता है—
ॐ नमो वीतरागाय ॥
पयडिय जय हंसहो, कुणय विहंसहो, भबिय कमल सर हंसहो । पणविवि जिण हंसहो, मुणियण हंस हो, कह पयडमि हरिवंसहो ।
इसके अनन्तर चौदस तीर्थंकरों का स्तवन कर ग्रंथकार काव्य लिखने का प्रयोजन बताता । इसी प्रसंग में कवि ने सज्जन - दुर्जन स्मरण किया है।' इसके अनन्तर गणधर से पूछे जाने पर श्रेणिक महाराज कथा प्रारम्भ करते हैं ।
तीसरी सन्धि के पश्चात् चौथी सन्धि से कौरव पुराण आरम्भ होता है। नवीन कृति के समान इस सन्धि के आरम्भ में मंगलाचरण, आत्म विनय, सज्जन- दुर्जण स्मरण मिलता है । "
१. पुव्य पुराण अत्यु अइ वित्थर, काल पहावें भवियहं दुत्तरु | अयर वाल कुल गयण दिणेसर, दिउ चंडु साहु भविय जण मणहरु । तासु भज्ज बालुहिइ भणिज्जह, दाण गुर्णाह लोए हि थुणिज्जइ ।
ताहि पुत्तु विण्णाण वियाणउ, बिउढा णामधेउ बहु जाणउ । ताही उवरोह मई यहु पारद्धउ, णिसुण हुं भवियण अत्य विसुद्धउ ।
साहरिवंसु मई मिर्जाह किउ ।
सद्द अत्य संबंधु पुरंतउ, जिणसेणहो सुत्तहो यहु पयडिउ । सज्जण दुज्जण भउ अवगण्णिवि, ते जिय जिय सहाव रय दोणिणवि । ases fre महुरइ गाली, अंविलु वीय पूरु चिचाली । तिहं सज्जण सुसहावें वछलु, दुज्जण दुट्ठ गहइ लेउ दोसु सो मई मो कल्लिउ, जइ पिक्खड़ तो
कवियण छ । अछउ सल्लिउ ॥
१. २.
भुवहि तरइ । भाणु ।
गयणे
२. एक्कहें aिr दिउढाखेण पत्तु, पणयं विषयं जस मुणि विणत्तु । मणिसुणिउं हरिवंसहो चरितु, एवहि अक्खमि कुरुकुल पवित्तु । मुणि जंपर को इउ चरिउ करह, भारह समुद्द को मह दुग्गम इउ कउरव पुराणु को हत्थे संप ro far ट्ठ अणिट्ठपाव, परकश्व भब्य जिंदण सहाव 4 दुज्जम अवहेलिविसु सुहमणाहं, अइ विणउ पयासिवि सज्जणाहं । चिर कव्व कविंद सउ लेवि, धम्मत्यें णिम्मलु मणु करेवि । कडुवउ महरउ निबिक्खुजेम, सज्जण दुज्जणहं सहाउ तेम । छण इंदहो भुक्कइ सारमेउ, कि करइ तासु ववगय विवेउ । ४. १..