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धर्मपरीक्षा-३
हारकङ्कणकेयूरश्रीवत्समुकुटादिभिः । अलंकृतं मनोवेगं ते दृष्ट वा विस्मयं गताः ॥७४ नूनं विष्णुरयं प्राप्तो ब्राह्मणानुजिघक्षया' ।
लक्ष्मी न्यस्यास्ति मनोरमा ॥७५ निगोति नमन्ति स्म भक्तिभारवशीकृताः।। प्रशस्तं क्रियते कार्य विभ्रान्तमतिभिः कदा ॥७६ तत्र केविदभाषन्त ध्रुवमेष पुरन्दरः। नापरस्येदशी कान्ति वनानन्ददायिनी ॥७७ परे प्राहुरयं शंभः संकोच्याक्षि तृतीयकम् । धरित्रीं द्रष्टुमायातो रूपमन्यस्य नेदृशम् ॥७८ अन्ये ऽवदन्नयं कश्चिद्विद्याधारो मदोद्धतः। करोति विविधां क्रीडामोक्षमाणो महीतलम् ॥७९ नैवमालोचयन्तोऽपि चक्रुस्ते तस्य' निश्चयम् । प्रभारितदिक्कस्य विश्वरूपमणे रिव ८०
७५) १. क कृपया। ८०) १. क मनोवेगस्य । २. क सूर्यस्य ।
वहाँ भी हार, कंकण, केयूर, श्रीवत्स और मुकुट आदि आभूषणोंसे विभूषित मनोवेगको देखकर आश्चर्यको प्राप्त हुए ॥७४॥
। वे बोले कि यह निश्चयसे ब्राह्मणोंका अनुग्रह करनेकी इच्छासे हमें भगवान् विष्णु ही प्राप्त हुआ है, क्योंकि, दूसरे किसीके भी शरीरकी ऐसी मनोहर कान्ति सम्भव नहीं है। यह कहते हुए उन लोगोंने उसे अतिशय भक्तिके साथ प्रणाम किया। ठीक ही है-जिनकी बद्धिमें विपरीतता होती है वे भला उत्तम कार्य कैसे कर सकते हैं ? अर्थात् वे ऐसे ही जघन्य कार्य किया करते हैं ॥७५-७६॥
उनमेंसे कुछ बोले कि यह निश्चयसे इन्द्र है, क्योंकि, लोकको आनन्द देनेवाली ऐसी उत्तम कान्ति दूसरेकी नहीं हो सकती है ॥७७॥
अन्य कितने ही बोले कि यह महादेव है और अपने तीसरे नेत्रको संकुचित करके पृथिवीको देखनेके लिए आया है, क्योंकि, ऐसी सुन्दरता और दूसरेके नहीं हो सकती है ॥७॥
दूसरे कुछ ब्राह्मण बोले कि यह कोई अभिमानी विद्याधर है जो पृथिवीतलका निरीक्षण करता हुआ अनेक प्रकारकी क्रीड़ा कर रहा है ।।७९।। .. इस प्रकार विचार करते हुए भी वे ब्राह्मण विश्वरूप मणि (सर्वरत्न ) के समान अपनी प्रभासे समस्त दिशाओंको परिपूर्ण करनेवाले उस मनोवेगके विषयमें कुछ भी निश्चय नहीं कर सके ॥८॥
७.) इ ध्रुवमेव । ७९) क ड इ महोद्धतः । .