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अमितगतिविरचिता
आरा' नगरे हट्टे मया राजगृहाङ्गणे । सर्वेषु जिनगेहेषु यदा त्वं न निरीक्षितः ॥६ पिता पितामहः पृष्टोत्वोद्विग्नेने ते तदा । नरेण क्रियते सर्वमिष्टसंयोगकाङ्क्षिणा ॥७ वार्तामलभमानेन त्वदीयां पृच्छताभितः । दैवयोगेन दृष्टोऽसि त्वमत्रागच्छता सता ॥८ कि हित्वा ' भ्रमसि स्वेच्छं संतोषमिव संयतः । मां वियोगासह मित्रमानन्दजननक्षमम् ॥९ तिष्ठतोन' वियोगे ऽपि वातपावकयोरिव । प्रसिद्धिमात्रर्तः सख्यं तिर्यगूर्ध्वविहारिणोः ॥१०
६) १. क वने ।
७) १. उच्चाटेन । २. तव ।
८) १. मया ।
९) १. त्यक्त्वा । २. हे मित्र अहम् । ३. क त्वदीयविरहसहनाशक्तः । १०) १. आवयोः । २. वचनमात्र ।
समस्त जिनालयों में से कहीं पर भी नहीं पाया तब तुम्हारे पिता तथा पितामह (आजा) से पूछा मनुष्य सब कुछ करता है ॥६-७॥
इस प्रकार खोजते हुए जब मैंने तुम्हें उद्यान, नगर, बाजार, राजप्रासादके आँगन और घबड़ाकर मैं तुम्हारे घर गया और वहाँ ठीक है - इष्टसंयोगकी इच्छा करनेवाला
।
इस प्रकार मैंने सब ओर पूछा, परन्तु मुझे तुम्हारा वृत्तान्त प्राप्त नहीं हुआ । अब दैवयोगसे मैंने तुम्हें यहाँ आते हुए देखा है ||८||
जिस प्रकार संयमी पुरुष सन्तोषको छोड़कर इच्छानुसार घूमता है उसी प्रकार तुम मुझ जैसे मित्रको - जो कि तुम्हारे वियोगको नहीं सह सकता है तथा तुम्हें आनन्द उत्पन्न करनेवाला है— छोड़कर क्यों अपनी इच्छानुसार घूमते हो ? अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार संयमी पुरुषका सन्तोषको छोड़कर इधर-उधर घूमना उचित नहीं है उसी प्रकार मुझको छोड़कर तुम्हारा भी इच्छानुसार इधर-उधर घूमते फिरना उचित नहीं है ||९||
वायु स्वभावसे तिरछा जाता है तथा अग्नि ऊपर जाती है। इस प्रकार पृथक-पृथक स्थित रहनेपर भी जिस प्रकार इन दोनोंके मध्य में मित्रताकी प्रसिद्धि है उसी प्रकार वियोग में स्थित होकर भी हम दोनोंके बीच में प्रसिद्धिमात्र से मित्रता समझना चाहिए ||१०||
६) अ ंगृहीगणे । ७) इ चेतसा for ते तदा । ८) क ड पृच्छता हितः । १०) अ प्रसिद्धमा' ।
९) अ संयमः क इ संयमी ।