SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४० अमितगतिविरचिता आरा' नगरे हट्टे मया राजगृहाङ्गणे । सर्वेषु जिनगेहेषु यदा त्वं न निरीक्षितः ॥६ पिता पितामहः पृष्टोत्वोद्विग्नेने ते तदा । नरेण क्रियते सर्वमिष्टसंयोगकाङ्क्षिणा ॥७ वार्तामलभमानेन त्वदीयां पृच्छताभितः । दैवयोगेन दृष्टोऽसि त्वमत्रागच्छता सता ॥८ कि हित्वा ' भ्रमसि स्वेच्छं संतोषमिव संयतः । मां वियोगासह मित्रमानन्दजननक्षमम् ॥९ तिष्ठतोन' वियोगे ऽपि वातपावकयोरिव । प्रसिद्धिमात्रर्तः सख्यं तिर्यगूर्ध्वविहारिणोः ॥१० ६) १. क वने । ७) १. उच्चाटेन । २. तव । ८) १. मया । ९) १. त्यक्त्वा । २. हे मित्र अहम् । ३. क त्वदीयविरहसहनाशक्तः । १०) १. आवयोः । २. वचनमात्र । समस्त जिनालयों में से कहीं पर भी नहीं पाया तब तुम्हारे पिता तथा पितामह (आजा) से पूछा मनुष्य सब कुछ करता है ॥६-७॥ इस प्रकार खोजते हुए जब मैंने तुम्हें उद्यान, नगर, बाजार, राजप्रासादके आँगन और घबड़ाकर मैं तुम्हारे घर गया और वहाँ ठीक है - इष्टसंयोगकी इच्छा करनेवाला । इस प्रकार मैंने सब ओर पूछा, परन्तु मुझे तुम्हारा वृत्तान्त प्राप्त नहीं हुआ । अब दैवयोगसे मैंने तुम्हें यहाँ आते हुए देखा है ||८|| जिस प्रकार संयमी पुरुष सन्तोषको छोड़कर इच्छानुसार घूमता है उसी प्रकार तुम मुझ जैसे मित्रको - जो कि तुम्हारे वियोगको नहीं सह सकता है तथा तुम्हें आनन्द उत्पन्न करनेवाला है— छोड़कर क्यों अपनी इच्छानुसार घूमते हो ? अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार संयमी पुरुषका सन्तोषको छोड़कर इधर-उधर घूमना उचित नहीं है उसी प्रकार मुझको छोड़कर तुम्हारा भी इच्छानुसार इधर-उधर घूमते फिरना उचित नहीं है ||९|| वायु स्वभावसे तिरछा जाता है तथा अग्नि ऊपर जाती है। इस प्रकार पृथक-पृथक स्थित रहनेपर भी जिस प्रकार इन दोनोंके मध्य में मित्रताकी प्रसिद्धि है उसी प्रकार वियोग में स्थित होकर भी हम दोनोंके बीच में प्रसिद्धिमात्र से मित्रता समझना चाहिए ||१०|| ६) अ ंगृहीगणे । ७) इ चेतसा for ते तदा । ८) क ड पृच्छता हितः । १०) अ प्रसिद्धमा' । ९) अ संयमः क इ संयमी ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy