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________________ [३] अथ यावन्मनोवेगो याति स्वां नगरी प्रति । दिव्यं विमानमारूढो नाकीव स्फुरितप्रभः ॥१ विमानवतिना तावत् सुरेणेव सुरोत्तमः। दृष्टः पवनवेगेन से संमुखमुपेयुषां ॥२ स दृष्टो गदितस्तेने क्व स्थितस्त्वं मया विना। इयन्तं कालमाचक्ष्व नयेनेव स्मरातुरः॥३ यो न त्वया विना शक्तः स्थातुमेकमपि क्षणम् । दिवसो भास्करेणेव सं तिष्ठामि कथं चिरम् ॥४ मया त्वं यत्नतो मित्र सर्वत्रापि गवेषितः। धों निर्वाणकारीव शद्धसम्यक्त्वशालिना ॥५ .२) १. प्रवर्तमानः [?] । २. क मनोवेगः। ३. प्राप्तेन; क प्राप्तवता। ३) १. पवनवेगेन । २. क कथय । ३. क नीत्या। ४) १. अहम् । २. सो ऽहम् ।। ५) १. क आलोकितः । २. मोक्षैषिणा-वाञ्छया। वह मनोवेग देदीप्यमान कान्तिसे प्रकाशमान देवके समान दिव्य विमानपर चढ़कर अपनी नगरीकी ओर जा ही रहा था कि इस बीचमें उसे विमानमें बैठकर सन्मुख आते हुए पवनवेगने इस प्रकारसे देखा कि जिस प्रकार एक देव दूसरे किसी उत्तम देवको देखता है-उससे मिलता है ॥१-२॥ तब उसको देखकर पवनवेगने पूछा कि जिस प्रकार नीतिके बिना कामातुर मनुष्य बहुत काल स्थित रहता है उस प्रकार तुम मेरे बिना ( मुझे छोड़कर ) इतने काल तक कहाँपर स्थित रहे, यह मुझे बतलाओ ॥३॥ जिस प्रकार सूर्यके बिना दिन नहीं रह सकता है उस प्रकार जो मैं तुम्हारे बिना एक क्षण भी रहनेको समर्थ नहीं हूँ वही मैं भला इतने दीर्घ काल तक तुम्हारे बिना कैसे रह सकता हूँ ? नहीं रह सकता हूँ ॥४॥ हे मित्र! मैंने तुम्हें प्रयत्नपूर्वक सर्वत्र इस प्रकारसे खोजा जिस प्रकार कि शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव मुक्तिप्रद धर्मको खोजता है ॥५॥ . १) ब प्रभं । ३) ब क ड इ दृष्ट्वा । ५) अ शुद्धः ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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